Saturday, December 12, 2009

डर कैसे बस गया जीवन में?

बचपन शहर से दूर रेत के समन्‍दर के बीच व्‍यतीत हुआ। साँप और बिच्‍छू जैसे जीव रोज के ही साथी थे। वे बेखौफ कभी भी घर में अतिथी बन जाते थे। लेकिन डर पास नहीं फटकता था। घर के आसपास रेत के टीले थे, रोज शाम को सहेलियों के साथ वहाँ जाकर टीलों के ऊपर बैठते थे। कभी-कभी तो किसी एक सहेली के साथ ही जाकर बैठ जाते थे, लेकिन डर नहीं लगता था। उस जमाने में मोपेड बाजार में आयी तो घर में भी भाई ने खरीदी। हम उनकी आँख बचाकर निकल जाते सूनी सुनसान सड़क पर। चारों तरफ रेत ही रेत और बीच में काली सड़क। लेकिन फिर भी डर नहीं लगता था। सायकिल से कॉलेज जाते, रास्‍ते में कोई बदमाश छेड़ देता तो सामने तनकर खड़े हो जाते, क्‍योंकि डर नहीं था।
ऐसे ही कितने ही प्रसंग हैं जीवन के, जहाँ जीवन बिंदास होकर जीया जाता था ना कि डर के साये में। डर तो बस एक ही था और वो था पिताजी का। उनका डण्‍डा कब खाने को मिले इसका कुछ भी निश्चित समय और घटना नहीं थी। अच्‍छी बात पर भी मार पड़ सकती थी तो बुरी बात पर भी। लेकिन आज के जीवन में जब परिवार में किसी का भी डर नहीं है तब बाहर की दुनिया में हर पल डर ने आ घेरा है। बच्‍चों को हल्‍का बुखार भी आ जाए तो न जाने कौन-कौन सी बीमारियों का डर आ घेरता है। बच्‍चे या अपने कोई छोटी सी यात्रा भी कर रहे हों, तब भी यात्रा पूर्ण होने तक डर ही समाया रहता है। घर सब तरफ से सुरक्षित हैं फिर भी डर बसा रहता है। सड़क पर डर, घर पर डर, मन में डर न जाने कितने प्रकार का डर हमारे अन्‍दर आ बसा है। क्‍या हमने अनुभव से डर ही कमाया है? बचपन में डर का अनुभव नहीं था इसलिए डर भी नहीं था या कुछ और बात थी? आपको भी नाना प्रकार के डर सताते होंगे, क्‍या हम इन सबसे मुक्‍त हो सकते हैं? किस कारण से यह डर हमारे जीवन में बस गया है?

Thursday, December 10, 2009

दिसम्‍बर में आएंगे घर-घर में राम

चौंकिए मत। राम को वनवास मिला और वे जिस दिन अयोध्‍या वापस लौटे, उस दिन दीपावली मनी। कौशल्‍या के दुलारे राम, या किसी माँ के लाड़ले बेटे का आगमन दीपावली ही तो मनाता है। भारत के लाखों माँओं के लाल आज विदेशों में हैं। विदेशों में दिसम्‍बर मास में ही छुट्टियों का योग सर्वाधिक बनता है तो सारे ही लाड़ले इसी मास अपने घर आते हैं। इसलिए हम सभी के राम और लक्ष्‍मण सीता के साथ दिसम्‍बर में ही तो आ रहे हैं।
घर-घर में सफाई हो रही है, पकवान बन रहे हैं। दीपावली पर पटाखे नहीं चलाए गए थे, उन्‍हें बचाकर रखा गया है, उनको निकाल लिया गया है। शायद दीपक तो नहीं जलें लेकिन अब हर कमरे की बत्तियां रोशन होंगी। महिनों से जो कमरे बन्‍द पड़े थे उनकी सीलन भी भाग जाएगी, वहाँ ताजी हवा का झोंका जो आने वाला है। माँ नौकर-नौकरानियों को आदेश देती घूम रही है कि देखो इन दिनों में कोई छुट्टी नहीं मिलेगी। सभी को काम मन लगाकर करना है। जब भैया चले जाएंगे तब ईनाम भी मिलेगा।
फोन पर बातें हो रही हैं कि बेटा क्‍या-क्‍या बनाऊँ? पोता भी तो आ रहा है। उसे क्‍या पसन्‍द है? वह भारतीय खाना पसन्‍द करेगा? क्‍या कहा, उसे लड्डू पसन्‍द हैं, अच्‍छा बस आज ही बनाकर रखती हूँ। मैंने गाजर का हलुवा भी बना लिया है और मठरियां भी। एक लिस्‍ट तुम्‍हारे पापा को भी थमा दी है कि घर में सारा ही सामान होना चाहिए। दूध वाले को भी कह दिया है कि अब से ज्‍यादा और अच्‍छा दूध देना। लेकिन यह क्‍या, उसने तो आज ही ढेर सारा दूध ला दिया। पतिदेव से कहा कि आज ही क्‍यों ले लिया इतना दूध? वे बोले कि अरे तुम्‍हे हलुवा बनाना है ना।
पिता भी बहुत खुश हैं। बेचारी माँ कह-कहकर थक गयी कि गाड़ी का टेप पुराना हो गया है, इसमें नया लगवाओ। लेकिन खर्चे का बहाना करके ऐसी विलासिता की बाते टल ही जाती हैं। लेकिन यह क्‍या तीन दिन से गाड़ी गेराज में हैं, जितनी भी टूट-फूट है वह दुरस्‍त हो रही है। वह तो जायज है लेकिन आज फिर दिन में बिना खाना खाए ही पिताजी गायब हो गए। आकर बताया कि देखो नया सोनी का टेप लगवा कर आ रहा हूँ गाड़ी में। अब तुम देख लो कुछ और कमी तो नहीं है। माँ आश्‍चर्य से देख रही है परिवर्तन। सैकड़ों का हिसाब रखने वाले आज हजारों की भी पर्वाह नहीं कर रहे।
ऐसे ही तो नहीं मनी थी दीपावली? अपने जिगर का टुकड़ा जब पोते के साथ घर आता है तब उसका आना सच में दीपावली बन जाता है। इस दिसम्‍बर में सारी ही फ्‍लाइट भरी हुई हैं। दाम आसमान छू रहे हैं। क्‍योंकि हर घर में राम आ रहे हैं। रिश्‍तेदारों को भी उत्‍साह है, वो भी कह रहे हैं कि अब तो तभी आएंगे, जब बेटा आएगा। ये पंद्रह दिन का त्‍योहार घरों में साल में एक बार या दो साल में एकबार आता है, फिर वहीं अमावस। बस नेट पर बातें, फोन पर बातें ही रह जाती हैं। बहुत लम्‍बी पोस्‍ट हो गयी है। मुझे भी तो तैयारी करनी है, बेटे, पोते और बहु का स्‍वागत करना है। शायद अब ब्‍लोगिंग की दुनिया कुछ पीछे छूट जाए। लेकिन हम तो बारहों महिने ही साथ है ना? चलिए शायद आपके घर भी राम आ रहे हों। सभी को बधाई।

Saturday, December 5, 2009

बच्‍चों और वृद्धों के लिए डे-केयर सेंटर

कभी बचपन लड़खड़ाकर चलता था तब एक वृद्ध हाथ उसकी अंगुली पकड़ लेता था और जब कभी वृद्ध-घुटने चल नहीं पाते थे तब यौवन के सशक्‍त हाथ लाठी का सहारा देकर उन्‍हें थाम लिया करते थे। एक तरफ घर में जिद्दी दादा जी हुआ करते थे, वे जो भी चाहते थे वही घरवालों को करना पड़ता था। लेकिन तभी एक दो साल का पोता आकर उनकी मूछ खीच लेता था और दादाजी मुस्‍करा उठते थे। वही दादा कभी घोड़ी बन जाते थे और कभी पीठ पर लादकर पोते को जय कन्‍हैया लाल की करते थे। बचपन और बुढ़ापे का अन्‍तर मिट जाता था। ना दादा सख्‍त रह पाते थे और ना ही पोता जिद्दी बन पाता था।
घर का यौवन भी हँसी-खुशी इस मिलन को देखता था और अपने अर्थ-संचय के कार्यों को बिना किसी बाधा के पूरा करता था। लेकिन आज यह दृश्‍य परिवारों से गायब होते जा रहे हैं। परिवार तीन टुकड़ों में बँट गए हैं। बच्‍चे डे-केयर में रहने को मजबूर हैं क्‍योंकि जिस शहर में माता-पिता की नौकरी है, उस शहर में बच्‍चे के दादा-दादी नहीं रहते। मजबूर माता-पिता दूध पीते बच्‍चे को डे-केयर में छोड़ने को मजबूर हैं। जिस शहर में वे अपने माता-पिता को छोड़ आए हैं, उनके पास भी कोई सशक्‍त हाथ नहीं हैं। वे भी डे-केयर में रहने को मजबूर हैं। बच्‍चे, यौवन और बुढ़ापा जो कभी एक छत के नीच रहता था आज तीन हिस्‍सों में विभक्‍त हो गया है। एक दूसरे से सीखने की परम्‍परा समाप्‍त हो चली है। प्रतिदिन की यह नि:शुल्‍क पाठशाला अब घर में नहीं है। अब एक-दूसरे के लिए जीने का स्‍वर नहीं सुनाई देता।
आज ही मेरे पड़ोस में वृद्धों के लिए एक डे-केयर सेंटर की स्‍थापना हुई है। अब सारे ही वृद्ध परिवारों से निकलकर दिन में अपना समय यही गुजारेंगे। वे परिवार की समस्‍याओं से मुक्‍त हो जाएंगे और युवा पीढ़ी उनकी समस्‍याओं से मुक्‍त हो जाएगी। दोनों ही सुखी रहेंगे। लेकिन यह सुख हमें कितना एकाकी बना देगा शायद इस बात का अहसास हम सभी को है लेकिन आवश्‍यकता अविष्‍कार की जननी होती है इसलिए ही ये डे-केयर सेंटर बनते जा रहे हैं। बस हमारा मन कहीं ओर रहेगा, दिल कहीं ओर और दिमाग कहीं ओर। कितनी आसानी से हमने परिवार को तीन टुकड़ों में बाँटकर खण्डित कर दिया। किसी ने रसगुल्‍ले की परिभाषा करते हुए कहा था कि पहले रस कहा फिर गुल कहा फिर ले कहा, जालिम ने रस-गुल्‍ले के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। काश हमारे परिवार की पाठशाला पुन: स्‍थापित हो जाए।

Thursday, December 3, 2009

सादगी से भरा बंगाली विवाह

अभी 29 नवम्‍बर को एक विवाह में सम्मिलित होने भोपाल गए थे। समधियों के यहाँ लड़की की शादी थी। बारात बंगाली परिवार की थी। बारात शाम को पाँच बजे आने वाली थी तो हम सब दरवाजे पर उनके स्‍वागत के लिए आ खड़े हुए। मुझे किसी काम से दो मिनट के लिए पण्‍डाल में जाना पड़ा तो सोचा कि अभी तो बारात आएगी, नाच-गाने चलेंगे। लेकिन मैं दो मिनट में ही जब वापस आयी तो सुना कि बारात आ गयी। और यह क्‍या? ना बाजे और ना पटाखे। कुल दस लोग गाड़ियों में बैठकर दूल्‍हे के साथ आए। ना घोड़ी आयी, ना तोरण हुआ बस दूल्‍हा को तिलक लगाकर अन्‍दर ले लिया गया। आनन-फानन में ही सब हो गया। दूल्‍हा बंगाली वेशभूषा में था, धोती और कुर्ता, सर पर कलाकारी वाला लम्‍बा मुकुट। दूल्‍हा पण्‍डाल में आते ही सीधे मण्‍डप में बैठ गया और पण्डितजी ने मंत्रोचार प्रारम्‍भ कर दिए। कुछ ही देर में दुल्‍हन को चौकी पर बिठाकर चार भाई लेकर आए और दूल्‍हे के चारों तरफ घूमकर सात फेर लिए गए। फिर दोबार दूल्‍हें ने कपड़े बदले और नया धोती कुर्ता और नया ही सर पर मुकुट पहन लिया। कन्‍यादान और फेरों की रस्‍म पूरे दो घण्‍टे और चली। बहुत ही सादगी के साथ विवाह सम्‍पन्‍न हुआ। इस पोस्‍ट लिखने का कारण इतना भर है कि हमारे यहाँ विवाह में इतनी लम्‍बी बारात आती है और घोड़ी, बाजे, नाच, पटाखे इतने सब कुछ होते हैं कि लगता है कोई लाव-लश्‍कर आ रहा है। शायद यही परम्‍परा भी है कि हम लड़की को जीत कर ले जाते हैं इसलिए दरवाजे पर आते ही तोरण मारा जाता है। एक तरफ लड़की को जीतकर ले जाने की परम्‍परा है तो दूसरी तरफ इस बंगाली शादी में जीतने का भाव नहीं था। दूसरी बात जो मुझे हमेशा अखरती है कि आजकल लड़के वाले लड़की वालों को अपने शहर में बुलाकर विवाह करते हैं। ऐसा लगता है जैसे हम लड़के वालों को लड़की सौंपने जा रहे हों। इसमें ना तो लड़की जीतने का भाव है और ना ही सात्विक पाणिग्रहण का। लड़के का पिता जो पूर्व में बारात लेकर आता था, अब वह भी लड़की वालों के द्वारा किए खर्चे पर ही अपना रिसेप्‍सन कर डालता है और दरवाजे पर आकर अपने रिश्‍तेदारों और परिचितों से लिफाफे लेकर घन्‍य हुआ जाता है।
हम कहते हैं कि शिक्षा के बाद लड़कियों में सम्‍मान आएगा लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऐसा हुआ है। शिक्षा के बाद लड़कियों में भी व्‍यापारिक भाव आ गया है। वह भी विरोध नहीं करती कि हम लड़के वाले के शहर में जाकर शादी नहीं करेंगे। लेकिन बंगाली समाज यदि विवाह की स्‍वस्‍थ परम्‍परा को निभा रहा है यह देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। लड़के वालों की तरफ से इतनी सादगी थी, कोई नखरा नहीं था, बस मन श्रद्धा से झुक गया। काश हम भी ऐसी ही शादियों की पहल करें।

Monday, November 23, 2009

कविता - सिंह-वाली बाहर होगी

मैं विगत एक सप्‍ताह से उदयपुर के बाहर थी अत: इस ब्‍लोग जगत से बाहर थी। क्‍या नया पोस्‍ट करूँ इसी उधेड़-बुन में एक कविता कुछ दिन पहले की लिखी दिखाई दे गयी। आज राजस्‍थान में स्‍थानीय निकायों के चुनाव हो रहे हैं। इन चुनावों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण है। तब लगा कि अब महिलाओं का राज आ गया है। आप भी आनन्‍द लीजिए इस कविता का।

जन-गण में होगा लोकतंत्र
मन-चाही बोली होगी।
घर-घर में होंगे घर-वाले
घर-वाली बाहर होगी।

पेड़ों पर कुहकेगी कोयल
सावन की बरखा होगी
जब-तब ना लुटेंगी कन्याएं
सिंह-वाली बाहर होगी।

घोड़ी न चढ़ेगी बारातें
तोरण-टंकार नहीं होगी
हँस-हँसकर बोलेंगे दूल्हे
रण-वाली दुल्हन होगी।

खाली कर राजा सिंहासन
संसद में रानी होगी
कुरसी-कुरसी पर अब तो
झाँसी-वाली बोली होगी।

मैना बुलबुल कोयल चिड़िया
बगिया-बगिया नाचेंगी
घर-घर में थाली बाजेगी
बेटी-वाली पूजित होगी।

Thursday, November 12, 2009

पुत्र-वधु के आगमन पर - आज चिरैया आ पहुँची

मुझे आज वह दिन स्‍मरण हो रहा है, जब मेरी पुत्र-वधु मेरे घर में आ रही थी। बेटे के चेहरे पर खुशी फूटी पड़ रही थी। घर की दीवारे भी जैसे चहक रही हों। खामोश से पड़े घर में चहचहाट होने लगी थी। उन क्षणों में एक कविता मेरे मन से निकलकर कागज में समा गयी। आज आपको समर्पित करती हूँ।

एक सुबह मेरे आँगन, एक चिरैया आ बैठी
नन्हें पंजों से चलकर, मेरी देहली जा पहुँची
मैं पूछू उस से कौन बता, क्यूं मेरे घर में आती
वह केवल चीं-चीं करती घर के अंदर जा पहुँची।

ओने-कोने में दुबकी घर की खुशियाँ निकल पड़ी
दीवारों पे पसरा सन्नाटा झट से बाहर भाग गया
मैं पूछू सबसे कौन बता, क्यूँ मेरे घर को भाती
वे कहते तेरा यौवन ले के, आज चिरैया आ पहुँची।

जो बीने थे पल कल से इक-इक कर निकल पड़े
रंगो हमको फिर से, हम बदरंग पड़े थे कब से
मैं पूछू रब से कौन बता, क्यूँ मेरे घर को रंगती
रब बोला तेरे कल को रंगने आज चिरैया आ पहुँची।

मैं सुध-बुध खोकर खुश होते आँगन को देख रही
उसकी चीं-चीं अंदर तक, मेरे मन में समा गयी
मैं पूछू मन से कौन बता, क्यूँ मुझको दस्तक देती
मन बोला तेरी दुनिया ले के आज चिरैया आ पहुँची।

Saturday, November 7, 2009

हम अपनी छवि में कैद हैं

कभी आप बेहद उदास हैं, उदासी भी आपकी निजी है। मन करता है कि दुनिया को बता दें कि आप क्‍यों उदास हैं फिर लगने लगता है कि आपने तो दुनिया के सामने एक छवि बनायी थी कि आप बेहद सुखी हैं। उसका क्‍या होगा? हम अपनी छवियों में कैद हैं, कभी लगता है कि हम एक फोटो फ्रेम में कैद होकर रह गए है। जब फोटो खिचवाने जाओ, फोटोग्राफर कहता है कि जरा मुस्‍कराइए। हम मुस्‍कराने का प्रयास करते हैं और फोटो क्लिक हो जाती है। बरसो तक यही फोटो फ्रेम में चिपकी रहती है। हम भी उसे देख देखकर खुश होते रहते हैं कि वाह क्‍या हमारा चेहरा है? कितने ही मौसम आकर निकल जाते हैं, कभी दुख की पतझड़ पत्रविहीन कर जाती है कभी वर्षा से भीग-भीग जाते हैं और कभी सर्दी में अपने आप में ठिठुर जाते हैं लेकिन फोटो तो वैसी ही बनी रहती है। दुनिया के सामने हमारा अस्तित्‍व भी बस ऐसा ही होना चाहिए। हमारा सब कुछ शाश्‍वत है, बस यही दिखना चाहिए। कहीं मृत्‍यु दस्‍तक देती हैं तो हम कहते हैं कि नहीं यह दस्‍तक हमारे यहाँ नहीं होगी। कहीं संतान आँखे दिखाने लगती हैं, तब भी हम कहते हैं कि नहीं हमारी संतान ऐसी नहीं होगी।
हम सब ब्‍लाग पर अपने जीवन की इस छवि को सबके सामने उधेड़ते हैं। शायद लेखक ही ऐसा प्राणी हैं जो अपने जीवन को छिपा नहीं पाता। वह अपने दुख को अपने शब्‍दों के माध्‍यम से गति देता है, उसे बाहर निकालने का प्रयास करता है। फिर कुछ हल्‍का होता है। उसकी फोटो शायद पल-पल बदलती रहती है। कभी आँसू टपकने लगते हैं तो कभी मोती झरने लगते हैं। संवेदनशील मन पड़ोस की घटना से दुखी हो जाता है लेकिन वह किसी को कह नहीं पाता, क्‍योंकि वह उसकी पड़ोस की घटना है। उसे पता लगेगा तो वह व्‍यक्ति आहत होगा। लेकिन जब घर में ही कुछ अघटित होने की दस्‍तक सुनायी देने लगे तब तो आहत मन सुन्‍न सा हो जाता है। किसके कहे अपना दुख? क्‍यों कहे अपना दुख? बदले में उपदेश ही तो मिलेंगे। जीवन के सार तत्‍व का उपदेश, जिन्‍दगी के नश्‍वरता का उपदेश।
बस आप अपनी छवि में कैद हो जाते हैं। मुझे दिखायी दे रही है एक माँ। जिसने सारे सुखों को एकत्र किया अपनी विरासत को बड़ा करने में। लेकिन क्‍या है आधुनिकता की इस आँधी का सच? प्‍यार क्‍यों छोटा पड़ने लगा है, क्‍यों बड़े बन गए हैं अहंकार? क्‍यूं बेटे के मुँह से ये शब्‍द निकलने लगे हैं कि अब मैं बड़ा बन गया हूँ तो तुम मेरे अधीन रहो। जो मैं कहता हूँ वही सत्‍य है। तुम्‍हारा अस्तित्‍व अब कुछ भी नहीं। सब कुछ सुनती है माँ, बर्दास्‍त भी करती है। लेकिन शायद शरीर और मन की इस जंग में कहीं शरीर हार जाता है। अघटित की दस्‍तक आ जाती है। तब लगता है कि अहंकार का फण कुचल जाएगा और रह जाएगा निर्मल प्‍यार। लेकिन नहीं यह सर्प कुचलता नहीं। ऐसा लगता है कि और विकराल रूप धर कर सामने आ गया है। माँ को सम्‍भालने की ह‍ताशा ने उसे और विकराल बना दिया है। माँ का अस्तित्‍व पहले ही समाप्‍त हो गया था और शायद अब तो बिल्‍कुल भी उसका वजूद नहीं बचा है। अब आप ही बताइए, ऐसे में मन क्‍यों उदास ना हो? क्‍यों न रोए मन उस माँ के लिए? जो प्‍यार की भीख माँग रही हो, बोल रही हो कि अब तो बस कुछ दिन ही शेष हैं, लेकिन प्‍यार का वो निर्मल झरना न जाने कहाँ खो गया है? बाहर से सारे ही फोटो फ्रेम दुरस्‍त है, फोटो भी मुस्‍कराहट वाली लगी है, लेकिन अन्‍दर कितने आँसू हैं क्‍या कभी हम इसे दिखा पाएंगे, अपनी छवि की वास्‍तविकता को दिखा पाएंगे?

Wednesday, November 4, 2009

अंग्रेजी खूनी पंजे-2

भारत में अकाल पड़ने का इतिहास हमेशा मिलता रहा है। लेकिन मृत्यु का इतना बड़ा आंकड़ा अंग्रेजों के काल में ही उपस्थित हुआ। गरीब जनता की मृत्यु इसलिए नहीं हुई कि देश में अन्न की कमी थी। जनता की मृत्यु इसलिए हुई कि अन्न इंग्लैण्ड जा रहा था। भारत में एक तरफ अकाल पड़ा हुआ है तो दूसरी तरफ किसानों पर लगान बढ़ा दिया गया, ऐसे कितने ही प्रकरण इस देश ने झेले हैं। बारड़ोली आन्दोलन जिसे सरदार वल्लभ भाई पटेल का नेतृत्व प्राप्त था और गांधी जी भी प्रत्यक्ष रूप से जुड़े थे, एक उदाहरण है। ऐसे आंदोलनों की भी एक सूची है जो शायद सैकड़ों में है। इसमें न केवल किसानों ने आंदोलन किया अपितु बहुत बड़ी संख्या में जनजाति समाज ने भी आंदोलन किया। आंदोलनकारियों को कहीं फांसी पर लटकाया गया और कहीं डाकू कहकर मार डाला गया। जो भारत में डाका डाल रहे थे वे तो साहूकार बन गए थे और जो किसान अन्न उपजा रहे थे वे डाकू बन गए थे।
अंग्रेजों के समय पड़े भारत के अकालों पर भी एक नजर डाल लें। 1825 से 1850 के मध्य भारत में दो बार अकाल पड़े, जिनमें 4 लाख लोग मरे। 1850 से 1875 के बीच 6 बार अकाल पड़े, जबकि 1875 से 1900 के बीच 18 बार अकाल पड़े। मृतकों की कुल संख्या 260 लाख थी। 1918 और 1921 के मध्य भी भयंकर अकाल पड़ा जिसमें मृतकों की संख्या 130 लाख थी। ये आकड़े दिए हैं ‘भारत का इतिहास’ के रचनाकार अंतोनोवा, लेविन और कोतोव्स्की ने, जो कि सरकारी आंकड़ों के आधार पर दिए गए हैं, वास्तविक आंकड़े तो महाविनाश की कहानी कहते हैं। इस काल में देश में अनाज की कमी नहीं थी, अपितु भारत का अनाज इंग्लैण्ड जा रहा था और भारत की जनता को भूखा मारने के लिए छोड़ दिया गया था। इन आंकड़ों से यह तथ्य निकलता है कि 1825 में पड़े अकाल में 4 लाख लोग मरे, वहीं 1918 के अकाल में 130 लाख लोग मरे। एक शताब्दी में भारत की आर्थिक स्थिति में इतना बड़ा अंतर आ चुका था कि मृतकों की संख्या 4 लाख से बढ़कर 130 लाख तक जा पंहुची।
एक और लूट का तथ्य प्रस्तुत करती हूँ। जब 1857 की क्रांति हुई तब इंग्लैण्ड से फौज बुलायी गयी और उस फौज के आने से छः महिने पूर्व का और जाने के छः महिने बाद का वेतन भी भारत के मत्थे मढ़ा गया। इतना ही नहीं प्रथम विश्वयुद्ध एवं द्वितीय विश्वयुद्ध का खर्चा भी भारत के माथे मढ़ा गया। युद्ध ही नहीं विलासिता के न जाने कितने खर्चों का कर्ज भारत से वसूला गया। द्वितीय विश्वयुद्ध तक 1179 करोड़ रूपयों का खर्चा भारत के मत्थे लिखा गया। भारत से 1931 से 37 के मध्य 24 करोड़ 10 लाख पौण्ड का सोना इसी कारण भारत से अंग्रेज ले गए।
अतः आज वर्तमान युग में प्रबुद्ध और समृद्ध वर्ग को चिंतन की आवश्यकता है। जिन्हें हम आदर्श मान रहे हैं, वे कितने घिनौने हैं? उनका वास्तविक स्वरूप क्या है? भारत में हर्षवर्द्धन के काल तक गरीबी और भुखमरी नहीं थी। लेकिन उसके बाद जब लूट की परम्परा प्रारम्भ हुई तब गरीबी का अभ्युदय हुआ। मुगलकाल में भी विदेशी आक्रांता बनकर आए बाबर के बाद हुमायूं और अकबर के आगे के मुगल राजा भारत में आत्मसात हुए और यहाँ का धन विदेश नहीं गया। यहाँ के कारीगर और उद्योगधंधों को चौपट नहीं किया गया। लेकिन अंग्रेजों ने भारत को बड़ी बेरहमी से लूटा। लूटा ही नहीं, यहाँ के एक-एक व्यक्ति को एक-दूसरे का दुश्मन बनाने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने भारतीय समाज को अपनी नजरों में ही गिरा दिया। जो देश सोने की चिड़िया कहलाता हो, जहाँ विदेशी आक्रांता बार-बार लूटने आते हो, उस देश की प्रजा को जाहिल की संज्ञा देना स्वयं की जाहिलता और अज्ञान की ओर इंगित करता है।
जब 1498 में वास्कोडिगामा भारत आया था, तब उसने यही कहा था कि मैं यहाँ मसालों और ईसाइयत की खोज में आया हूँ। गांधीजी ने कहा था कि अंग्रेज न तो हिन्दुस्तानी व्यापारी का और न ही यहाँ के मजदूरों के मुकाबले में खड़ा हो सकता है। इसी कारण अफ्रिका, मॉरीशस, फिजी, गुयाना आदि देशों को खड़ा करने के लिए भारतीय मजदूरों को एग्रीमेंट पर ले जाया गया और इन बेरहम अंग्रेजों ने उन्हें गुलामों से भी बदतर जीवन दिया। जिन जंगलों को शहरों के रूप में बसाने के लिए अंग्रेज मजदूर उपलब्ध नहीं थे, तब भारतीय मजदूर वहाँ ले जाए गए, इस शर्त पर की वहाँ बेहतर नौकरी और बेहतर सुविधाएं मिलेंगी, लेकिन अंग्रेजों ने उनका जीवन नारकीय बना दिया। ऐसे अत्याचार तो कोई शैतान भी नहीं कर सकता था, जैसे उन्होंने किए। मजदूरों के साथ केवल 40 प्रतिशत महिलाओं को ही ले जाने की छूट मिली, उनमें भी काफी बड़ी संख्या में वेश्याएं थीं। परिणाम स्वरूप सभी महिलाओं को वेश्याओं के रूप में परिणित कर दिया गया।
आज का प्रश्न यह है कि क्या आज यह जाति सुधर गयी है? क्या अंग्रेजों की मानसिकता आज बदल गयी है? नहीं वे आज भी उतने ही क्रूर है, जितने कल थे। हमारी युवापीढ़ी यदि अंग्रेजों का अनुसरण करती है, तब ऐसा लगता है कि हम भी उसी क्रूरता के अनुयायी बनते जा रहे हैं। उनके पास अभी तक भी भारत की लूट का बहुत धन है अतः वे आज तक अमीर बने हुए हैं। लेकिन जैसे-जैसे उनकी लूट का धन कम होता जा रहा है, वे नवीन लूट के अनुसंधान में लगे हैं। उनकी निगाहें अब तैल पर लगी हैं और इसी कारण वे कभी ईरान पर और कभी कुवैत पर आक्रमण करते रहते हैं। उन्होंने भारत के प्रबुद्ध वर्ग पर पहले से ही कब्जा कर रखा है, वह और बात है कि अब भारतीय प्रबुद्ध वर्ग भी राष्ट्रीयता की भावना को समझने लगा है। पूर्व में भारतीय मस्तिष्क आध्यात्म या व्यापार में ही अपनी सार्थकता सिद्ध करता था लेकिन अब भारतीय मनीषा प्रत्येक क्षेत्र में अपने आपको सिद्ध कर रही है और दुनिया ने यह जान लिया है कि भारतीय बौद्धिक स्तर का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। यही कारण है कि आज भारत में बौद्धिक प्रतिभाओं के लिए नवीन सूरज निकलने लगा है और वह दिन दूर नहीं जब यूरोप और अमेरिका जैसे देश भारतीय प्रतिभाओं से रिक्त होकर पुनः अपने वास्तविक स्वरूप में होंगे। नवीन युवावर्ग सारी परिस्थितियों को देख रहा है, समझ रहा है अतः वे भारत के विकास में भी भागीदार बन रहा है। बस उसे कल का इतिहास पढ़ने की आवश्यकता है जिससे वे अंग्रेज, अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के खूनी पंजों की पहचान कर सकें। वे जान लें कि हमारे पूर्वजों पर नृशंस अत्याचार करने वाले कौन लोग थे और क्या ऐसे खूनी, लुटरे लोग कभी हमारे आदर्श बन सकते हैं? जिस दिन हमारे युवावर्ग ने अंग्रेजों के इतिहास की सच्चाई को जान लिया उस दिन कोई भी भारतीय अपने आपको अंग्रेजों की श्रेणी में रखना पसन्द नहीं करेगा। आज स्वतंत्रता के साठ वर्ष पूर्ण होने पर, गुलामी के दिनों में अंग्रेजी खूनी पंजों का स्मरण ही हमारी प्रगति का मार्ग प्रशस्त करेगा।

Monday, November 2, 2009

अंग्रेजी खूनी पंजे

अभी अदा जी की एक पोस्‍ट आयी, हमारी राष्‍ट्रपति के इंग्‍लैण्‍ड दौरे को लेकर। भाई प्रवीण शाह ने अपनी टिप्‍पणी में लिखा कि अंग्रेजों ने हमें बह‍ुत कुछ दिया है। मैं यहाँ अंग्रेजों ने हमें कैसे लूटा है उसका ब्‍यौरा दे रही हूँ। यह आलेख मेरी पुस्‍तक "सांस्‍कृतिक निबन्‍ध" से लिया है, उसके कुछ अंश यहाँ प्रस्‍तुत हैं।

अंग्रेजी खूनी पंजे
अंग्रेज, अंग्रेजी और अंग्रेजीयत इस देश की युवापीढ़ी को सदैव से ही आकर्षित करती रही है। जब अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाया था तब भी हमारे राजे-रजवाड़े और आधुनिक कहे जाने वाले युवा उनकी स्वच्छंदता से बहुत प्रभावित थे। व्यक्ति की जन्मजात आकांक्षा रहती है - स्वच्छंदता। उसमें कहीं एक पशु छिपा रहता है और वह सभ्यता के दायरे को तोड़ना चाहता है। भारत हजारों वर्षों से एक सुदृढ़ संस्कृति के दायरे में बंधा हुआ था, इसलिए भारतीयों ने इस प्रकार की स्वच्छंदता कभी न देखी थी और न ही अनुभूत की थी। अतः समृद्ध और प्रबुद्ध वर्ग इस स्वच्छंदता की ओर आकर्षित हुआ। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अधिकांश रजवाड़े अंग्रेजों की भोगवादी प्रवृत्ति के गुलाम हो गए। कल तक प्रजा के रक्षक कहे जाने वाले ये श्रीमंत लोग आज प्रजा से दूर हो गए। वे केवल मालगुजारी एकत्र करने और अंग्रेज शासक को खुश रखने में ही लगे रहे। जनता के ऊपर कितने अत्याचार हो रहे हैं और जनता गरीब से गरीबतर होकर अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रही है, इस बात की चिन्ता किसी को भी नहीं थी। अंग्रजों ने भारत को किस तरह तबाह किया और लूटा इसके उदाहरण हमारे इतिहास में भरे पड़े हैं। उन्होंने भारत के व्यापार को चौपट किया, करोड़ों लोगों को भूखा मरने पर मजबूर किया। अयोध्या सिंह की पुस्तक ‘भारत का मुक्ति-संग्राम’ में भारतीय कपड़ा उद्योग के कुछ आंकड़े दिए हैं, उन्हें मैं यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ। ‘1801 में भारत से अमरीका 13,633 गांठ कपड़ा जाता था, 1829 में कम होते-होते 258 गांठ रह गया। 1800 तक भारत का कपड़ा प्रतिवर्ष लगभग 1450 गांठ डेनमार्क जाता था, वह 1820 में सिर्फ 120 गांठ रह गया। 1799 में भारतीय व्यापारी 9714 गांठ पुर्तगाल भेजते थे, 1825 में 1000 गांठ रह गया। 1820 तक अरब और फारस की खाड़ी के आस पास के देशों में 4000 से लेकर 7000 गांठ भारतीय कपड़ा प्रतिवर्ष जाता था 1825 के बाद 2000 गांठ से ज्यादा नहीं भेजा गया।’ पुस्तक में आगे लिखा है कि ‘ईस्ट अण्डिया कम्पनी के आदेश से जांच के लिए डाॅ. बुकानन 1807 में पटना, शाहाबाद, भागलपुर, गोरखपुर आदि जिलों में गए थे। उनकी जांच के अनुसार पटना जिले में 2400 बीघा जमीन पर कपास और 1800 बीघा में ईख की खेती होती थी। 3,30,426 औरतें सिर्फ सूत कातकर जीविका चलाती थी, दिन में सिर्फ कुछ घण्टे काम करके वे साल में 10,81,005 रू. लाभ कमाती थी। इसी प्रकार शाहबाद जिले में 1,59,500 औरतें साल में साढ़े बारह लाख रूपए का सूत कातती थी। जिले में कुल 7950 करघे थे। इनसे 16 लाख रूपये का कपड़ा प्रतिवर्ष तैयार होता था। भागलपुर मंे 12 हजार बीघे में कपास की खेती होती थी। टसर बुनने के 3,275 करघे और कपड़े बुनने के 7279 करघे थे। गोरखपुर में 1,75,600 स्त्रियां चरखा कातती थीं। दिनाजपुर में 39,000 बीघे में पटसन, 24,000 बीघे में कपास, 24,000 बीघे में ईख, 1500 बीघे में नील और 1500 बीघे में तम्बाकू की खेती होती थी। महिलाएं 9,15,000रू. का खरा मुनाफा सूत कातकर करती थीं। रेशम का व्यवसाय करनवाले 500 घर साल में 1,20,000 रू. का मुनाफा करते थे। बुनकर साल में 16,74,000रू. का कपड़ा बुनते थे। पूर्णिया जिले की औरतें हर साल औसतन 3 लाख रूपए का कपास खरीद कर सूत तैयार करती थी और बाजार में 13 लाख रूपये का बेचती थीं।’
इतना ही नहीं अंग्रेजों ने नेविगेशन एक्ट के कारण यूरोप या अन्य किसी देश से सीधे व्यापार करने का हक भारत से छीन लिया। 1890 में सर हेनरी काटन ने लिखा ‘अभी सौ साल भी नहीं बीते जब ढाका से एक करोड़ रू. का व्यापार होता था और वहाँ 2 लाख लोग बसे हुए थे। 1787 में 30 लाख रू. की ढाका की मलमल इंग्लैण्ड आयी थी और 1817 में बिल्कुल बन्द हो गयी। जो सम्पन्न परिवार थे वे मजबूर होकर रोटी की तलाश में गांव भाग गए।’
शेष अगली बार

Friday, October 30, 2009

जीवन में सपने मत देखो

कई बार मन उदास हो जाता है। जीवन में अघटित सा होने लगता है। ऐसे ही क्षणों में कुछ शब्‍द आकर कहते हैं कि जीवन में सपने मत देखो, इनके अन्‍दर सत्‍य, सत्‍य में दर्द छिपा है। पढिए मेरी एक पुरानी रचना जो मेरी कविता संग्रह "शब्‍द जो मकरंद बने" से ली है।

जीवन की परते मत खोलो
इनके अंदर घाव
घावों में दर्द छिपा है।
जीवन में सपने मत देखो
इनके अंदर सत्य
सत्य में दर्द छिपा है।

जीवन का क्या है नाम
संघर्ष, सफलता, खोना, पाना,
महल बनाना दौलत का
या परिवार बनाना अपनों का
सच तो यह है
महलों से ही अपने बनते हैं
अपने कब दिल में रहते हैं?
अपनों की बाते मत सोचो
इनके अंदर प्रश्न
प्रश्नों में मौन छिपा है।

जीवन तो कठपुतली है
परदे के आगे नचती है
किसकी अंगुली किसका धागा
किसने जाना किसने देखा
अंगुली की बाते मत सोचो
इसके अंदर भाग्य
भाग्य में राज छिपा है।

जीवन के तीन हैं खण्ड
सबके सांचें, सबकी परतें
एक दूजे से गुथी हुई पर
फिर भी हैं अनजान
बचपन का सांचा कैसा था
यौवन की परते कहाँ बनी
और अंत समय में
किस सांचे में ढलने की तैयारी की
जीवन के खण्डों को मत देखो
इनके अंदर आग
आग से जीवन जलता है।

कहाँ स्वतंत्र तू, कहाँ रिहा
तेरा तो हर पल, कण कण
नियति के हाथों बिका हुआ
लगता है जीवन अंधा कुँआ है
बस हाथ मारते बढ़ना है
चारो ओर अंधेरा है
कब कौन वार करेगा पीछे से
इसका भी हर बार अंदेशा है
सम्बल के सपने मत देखो
इनके अंदर द्वेष
द्वेष में घात छिपा है।

बस जीना है तो कुछ भी मत सोचो
ना सपने देखो ना परते खोलो
किस अंगुली पर हम नाच रहे
किस धागे से हम जुड़े हुए
बस कठपुतली बनकर
तुमको तो हंसना है, खुश ही दिखना है
आंखों के आँसू मत देखो
इनके अंदर दर्द
दर्द में मन का भेद छिपा है।

Saturday, October 24, 2009

कविता - तुम ही दीप जला जाती हो

गीला-गीला मन होता जब
तुम आकर बस जाती हो
रीता-रीता मन होता जब
झोंका बन छू जाती हो।


मेरी चौखट, तेरे चावल
मुट्ठी भर से सज जाती है
अपने पी के धान-खेत से
आँचल में भर लाती हो
आँगन मैके का भरा रहे
यह सपना भर लाती हो।

सूने कमरे, सूना आँगन
आया संदेशा, बज जाते हैं
मीत तुम्हारे, माँ कहने से
सूना आँचल भर जाती हो
माँ का दर्पण खिला रहे
अक्स चाँद भर लाती हो।

गूंगी दीवारे, मौन अटारी
गूँज उठी, बिटिया आयी है
तुम से ही घर मैका बनते
सूना घर, दस्तक लाती हो
बाबुल तेरा आँगन फूले
आले की जोत जला जाती हो।

कैसे होंगे वे घर, चौबारे
मैना जिनमें नहीं होती है
भँवरें तो उड़ जाते होंगे
गुंजन तो तुम ही लाती हो
बेटा है फिर सूनी दिवाली
तुम ही दीप जला जाती हो।

Friday, October 16, 2009

दीवाली पर एक कविता - शब्‍द तुम्‍हारे दीप बनेंगे

शब्द तुम्हारे दीप बनेंगे
अन्तर्मन के कलुष हरेंगे
शब्द-शब्द हो प्रेम भरा
कैसे मन में द्वेष रहेंगे?

शब्द साधना राह कठिन
शब्द-शब्द से दीप बनेंगे
तमस रात में लिख देंगे
शब्दों में नहीं बेर भरेंगे।

आओ हम सब भरत बने
या लक्ष्मण बन जाएंगे
उर्मिल को रख के मन में
मर्यादा नहीं भंग करेंगे।

सरल नहीं प्रेम को पाना
देना तो सब कर पाएंगे
राम ने पाया प्रेम भरत का
क्या हम भी जतन करेंगे?

आज दीवाली दीपों की
हम बाती का स्नेह बनेंगे
प्रेम द्वार पे जोत जलाके
मन में विश्वास भरेंगे।

Saturday, October 10, 2009

कविता - सुन शब्द राम के

दीपावली को हम रोशनी का त्‍योहार कहते हैं। लेकिन जिन रामजी के लिए यह दीपमालाएं सजायी गयी थीं उनके त्‍याग का कोई भी स्‍मरण नहीं करता है। दीपावली त्‍याग का पर्व है, प्रेम का पर्व है। इस दीवाली पर हम राम का स्‍मरण करें और उनके शब्‍दों को सुनने का प्रयास भी करें।

सुन शब्द राम के
मान के, त्याग के
प्रेम के, विराग के
संकटों में शौर्य के

सुन शब्द राम के।

पितृ के सम्मान के
मातृ के आदेश के
भातृ के बिछोह के
विधना में धैर्य के

सुन शब्द राम के।

रावण पे जीत के
जनता के प्रश्न के
सीता के त्याग के
नैराश्य में कार्य के

सुन शब्द राम के।

मावस में दीप के
द्वेष में आगोश के
व्यष्टि के समष्टि के
दुराग्रहों में प्यार के

सुन शब्द राम के।

धरती में, व्योम में
पर्वत में, नीर में
जनता के रोम में
विग्रहों में एक्य के

सुन शब्द राम के।

Wednesday, September 23, 2009

जनजातीय गाँव - 2


मौसम कुछ-कुछ खुशगवार था, सोचा कि किसी गाँव में घूम आया जाए। अभी भुटटो का भी मौसम था तो सोचा गया कि किसी के खेत पर जाकर ताजे भुट्टो का मजा लिया जाए। उदयपुर से तीस किलोमीटर की दूरी पर बसा था एक गाँव अलसीगढ़। वहाँ एक पानी का बंधा भी था तो पानी का लुत्‍फ और साथ में भुट्टे। लेकिन हमारी गाडी अलसीगढ गाँव में चले गयी, वहाँ से एक कच्‍चा रास्‍ता जाता था बांध की ओर। हमने उस कच्‍चे रास्‍ते पर जाने का विचार त्‍याग दिया और वहीं गाँव को निहारने लगे। हम एक पेड की छाँव तले खडे थे और किसी के खेत पर जाकर भुट्टे खाने की सोच रहे थे। देखा कि झुण्‍ड के झुण्‍ड जनजातीय लोग चले आ रहे हैं। हमें देखकर वे रुके, राम-राम हुई। मेरे पति चिकित्‍सक हैं और इस क्षेत्र के सारे ही लोग उनके पास चिकित्‍सा कराने आते हैं तो पहचान का संकट नहीं था। हमने पूछा कि कहाँ जा रहे हो तो वे बोले कि गवरी में।
आज गवरी का समापन था। तब हमें ध्‍यान आया कि आज भुट्टे खाना कठिन काम है। रक्षाबंधन के बाद से ही पूरे सवा महिने चलने वाला यह पर्व है। इस पर्व में वनवासी अपनी फसल को तोडता नहीं है और न ही हरी सब्जियों का सेवन करता है। हमने फिर भी एक-दो लोगों से कहा कि भुट्टे खिला दो लेकिन उन्‍होंने कहा आज तो नहीं। तभी हमें लगा कि हम भी गवरी देख ही आएं। सारे ही क्षेत्र वाले वहाँ एकत्र थे, गवरी उनके जीवन का अभिन्‍न पर्व है तो उसे देखने से ज्‍यादा वहाँ आना ज्‍यादा आनन्‍द दायक होता है तो लोग जहाँ जगह मिली वहाँ ही पहाडियों पर बैठ गए थे। गवरी जहाँ खेली जा रही थी वहाँ लोग झुण्‍ड बनाकर डटे थे।
यहाँ का जनजातीय समाज के पास कहीं आधा बीघा तो कहीं एक और ज्‍यादा हुई तो पाँच बीघा जमीन खेती के लिए होती है। अधिकतर वहीं उनका झोपड़ा होता है। खाने को मक्‍की हो जाती है और दूसरी आवश्‍यक वस्‍तुएं मजदूरी की आमद से मिलती हैं। गवरी के समापन के बाद ही वे फसल को तोडते हैं और सौगात के रूप में पाँच भुट्टे डाक्‍टर आदि को देते हैं। यह गाँव अलसीगढ़ उदयपुर से तीस किलोमीटर दूर बसा है। पतली सी सडक पर वाहन को चलाना पडता है, पूरा ही क्षेत्र पहाडों से घिरा है और बहुत ही मनोरम है। आज के पचास वर्ष पूर्व यहाँ घना जंगल था, लेकिन अब पेड दूर-दूर तक दिखायी नहीं देते। कभी यहाँ के वनवासी जंगल के राजा थे लेकिन अंग्रेजों ने जब से जंगल को सरकारी सम्‍पत्ति बनाया तब से ही ये जंगल की उपज से दूर हो गए। बस अब तो जंगल में महुवा और पलाश के कुछ ही पेड दिखायी देते हैं। ये दोनों ही पेड इनकी आमदनी का मुख्‍य जरिया हैं। इस जगह अभाव है लेकिन फिर भी एक संतुष्टि का भाव सब के चेहरों पर दिखायी देता है।
मैंने अपनी बात भुटटो से की थी, आप सोच रहे होंगे कि आखिर हमें भुट्टे खाने को मिले या नहीं। हमें मिले, एक चाय की टापरी थी, हमने उसी को कहा और उसने डॉक्‍टर साहब का लिहाज करते हुए हमें भुट्टे खिलाए। खेत से ही भुट्टे तोडे गए और वहीं से कांटे लाकर उनके बीच में ही सेके गए। कितना मीठा स्‍वाद था उन भुट्टो का? जितना सुंदर यह स्‍थान है उतने ही मीठे यहाँ के भुट्टे भी हैं और लोग भी एकदम सीधे। पोस्‍ट लम्‍बी न हो जाए इसके लिए यहीं समाप्‍त करती हूँ, अगली बार आगे की बात करेंगे। चित्रों को बडा करके देखेंगे तो अधिक आनन्‍द आएगा।
अजित गुप्‍ता

Monday, September 21, 2009

एक जनजातीय गाँव






उदयपुर से तीस किलोमीटर दूर बसा एक गाँव – अलसीगढ़। आज यहाँ गवरी का समापन है। रक्षाबंधन के बाद से पूरे सवा महिने तक चलने वाला पर्व है गवरी। इसमें महाभारत की पौराणिक कथाओं को आधार बनाकर जानजातीय लोग स्‍वांग भरकर नाटिका प्रस्‍तुत करते हैं। इस अवधि में गवरी में भाग लेने वाले व्‍यक्ति घर से बाहर रहते हैं और किसी भी व्‍यसन को हाथ नहीं लगाते हैं।
सौभाग्‍य से हम गवरी के समापन वाले दिन 13 सितम्‍बर को इनके बीच जा पहुँचे। गवरी के पात्रों की तस्‍वीर तो नहीं ले पायी लेकिन गाँव की खूबसूरती आपको दिखाने का अवसर मैंने केमरे में कैद कर लिया था। यहाँ का जीवन बहुत ही सादगी और सीधा है। इसपर कभी विस्‍तार से चर्चा करेंगे, अभी चित्रों को देखिए और प्रकृति के मध्‍य बसे इस जनजातीय गाँव का आनन्‍द लीजिए।
अजित गुप्‍ता

Monday, September 14, 2009

नवगीत - बिखर पड़ा मन

सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन
बगियाँ के सामने
ठिठक खड़ा वन।

बरगद है गमले में
कुण्‍डी में जामुन
सुआ है पिंजरे में
बिल्‍ली है आँगन
छाँव गंध नायरे
पसर गया डर
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।

चूल्‍हा ना चौका है
जीमण ना झूठा
ऑवन में बर्गर है
फ्रीजर है मोटा
माँ न रही साथ रे
बिसर गया अन्‍न
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।

बूढ़ी सी आँखे हैं
आँगन में झूला
परिधी में जैसे है
बेलों का जोड़ा
कोई नहीं हाय रे
झुलस रहा तन
सिमट गए दायरे
बिखर पड़ा मन।

Monday, August 24, 2009

कविता - बिटिया, तुम आ गयी?

आज मेरी बिटिया कनुप्रिया का जन्‍मदिन है। यह जन्‍मदिन तब और खास बन जाता है जब उसकी गोद में भी एक नन्‍हीं सी बिटिया हो। कुछ पंक्तियां मैं गुनगुना रही हूँ, उसमें आप सभी को भी सम्मिलित करना चाहती हूँ। देखिए यह गीत और आनन्‍द लीजिए।
बिटिया, तुम आ गयी?

उमस भरी रात थी
मेघ बूँद आ गिरी
एक गंध छा गयी
बिटिया, तुम आ गयी?

निर्जन सा पेड़ था
फूट गयी कोंपलें
लद गयी थी डालियाँ
बस गए फिर घौसलें
देख कुहक छा गयी
चिड़िया, तुम आ गयी?

जागती सी रात थी
चाँद-तारे दूर थे
उथल-पुथल मौन था
देव सारे चूर थे
कोई परी आ गयी
गुड़िया, तुम आ गयी?

धुंध भरी भोर थी
फूट पड़ी रश्मियाँ
इठलाती ओस थी
जाग उठी पत्तियाँ
गीत कौन गा गयी
मुनिया, तुम आ गयी?

Saturday, July 25, 2009

लोरी - गुब्‍बारे में सैर करूँगी

अपनी नाती के लिए एक लोरी बनायी थी। सोचा कि सभी नाती, पोतों के काम आएगी तो यहाँ पोस् कर रही हूँ। आप सभी की प्रतिक्रिया का इन्तजार रहेगा।


गुब्‍बारे में सैर करूँगी

नानी से मिल आऊँगी

जब भी मुझको निदियाँ आए

चन्‍दा से मिल आऊँगी।


एक टोकरी सपने होंगे

मुठ्ठी में भर लाऊँगी

थोड़ा-थोड़ा सबको दूँगी

आँखों में भर आऊँगी

बगिया में खेलूँगी ऐसे

सबके मन पर छाऊँगी।


नानी की बाँहों का झूला

मम्‍मी से मैं पाऊँगी

हिचकी-हिचकी याद करूँगी

सपनों में मिल आऊँगी

नानी की पप्‍पी मैं लेकर

जल्‍दी वापस आऊँगी।

Thursday, July 2, 2009

नवगीत - एक गाँव में देखा मैंने

एक गाँव में देखा मैंने

सुख को बैठे खटिया पर

अधनंगा था, बच्‍चे नंगे,

खेल रहे थे मिटिया पर।


मैंने पूछा कैसे जीते

वो बोला सुख हैं सारे

बस कपड़े की इक जोड़ी है

एक समय की रोटी है

मेरे जीवन में मुझको तो

अन्‍न मिला है मुठिया भर

एक गाँव में देखा मैंने

सुख को बैठे खटिया पर।


दो मुर्गी थी चार बकरियां

इक थाली इक लोटा था

कच्‍चा चूल्‍हा धूआँ भरता

खिड़की ना वातायन था

एक ओढ़नी पहने धरणी

बरखा टपके कुटिया पर

एक गाँव में देखा मैंने

सुख को बैठे खटिया पर।


लाखों की कोठी थी मेरी

तन पर सुंदर साड़ी थी

काजू, मेवा सब ही सस्‍ते

भूख कभी ना लगती थी

दुख कितना मेरे जीवन में

खोज रही थी मथिया पर

एक गाँव में देखा मैंने

सुख को बैठे खटिया पर।


Thursday, June 25, 2009

पुस्‍तकों का प्रकाशन

आदरणीय
विगत तीन माह में मेरी चार पुस्‍तकों का प्रकाशन हुआ है। अरण्‍य में सूरज ( उपन्‍यास) - सामयिक प्रकाशन दिल्‍ली, सोने का पिंजर.. अमेरिका और मैं (यात्रा वृतान्‍त) - साहित्‍यागार प्रकाशन जयपुर, सांस्‍कृतिक निबन्‍ध (मधुमती के सम्‍पादकीयों का संकलन) - साहित्‍यागार, हम गुलेलची (व्‍यंग्‍य संग्रह) साहित्‍यागार। यदि आपको आपके शहर के किसी भी पुस्‍तक विक्रेता से उपलब्‍ध हो सके तो अवश्‍य पढे।

Friday, May 8, 2009

कविता - ऐसी थी मेरी अम्मा

मातृ दिवस पर माँ का स्‍मरण। जब माँ पास थी तब उसका देय स्‍वाभाविक लगता था लेकिन आज जब वह नहीं है तब लगता है कि विपरीत परिस्थितियों में देना कितना अस्‍वाभाविक होता है। उसने हमें जो भी दिया उसको नमन। काश हममें भी उसकी जितनी हिम्‍मत हो। उसी को समर्पित एक कविता -
तूफानी काली रातों में
जैसे जलता एक दिया
हाँ ऐसी थी मेरी अम्मा।

दुर्वासा के रौद्र रूप से
काली पीली आँधी आती
तिनके-तिनके घर को करती
आनन-फानन बिखरा जाती
उसकी आँखे हम से कहती
थमने दो, मत धीरज खोओ
वो टुकड़ों को बीन-बीन के
फिर वापस एक बना देती

शिव के नर्तन, रौद्ररूप में
जैसे स्थिर रहती हिमजा
हाँ ऐसी थी मेरी अम्मा।

घर में तूफान सुनामी सा
कुछ भी शान्त नहीं रहता
गर्जन-तर्जन कितना होता
आँखों से नीर नहीं बहता
लहरों के वापस जाने तक
आँचल उसका सिमटा रहता
मंथन से निकले गरलों को
फिर वह झट से बिसरा देती

सागर के ज्वारों में जैसे
स्थिर रहती पाषाण शिला
हाँ ऐसी थी मेरी अम्मा।

न माथे पर मोटी बिंदिया
न पाँवों में पायल, बिछियां
बस चूड़ी वाले से कहती
एक सुहाग की दे भइया
रही सुहागन मेरी अम्मा
सुन तो लो उसकी बतियां
मेरे श्रीराम गए कहकर
उसने बंद करी अँखियां

सतयुग जैसे कलिकाल में
कस्तूर बनी बापू की बा
हाँ वैसी थी मेरी अम्मा।

Tuesday, April 28, 2009

सफलता का मापदण्‍ड क्‍या?

हम अक्‍सर कहते हैं कि हम सफल हुए या असफल ह‍ुए। लेकिन क्‍या है इस सफलता का पैमाना? धन-दौलत का अम्‍बार या पारिवारिक सुख। शिक्षा से मण्डित या अशिक्षित लेकिन ज्ञानवान। हम यदि श्रेणियों में विभक्‍त करेंगे तो नाना प्रकार मिलेंगे सफलता के फिर भी हम खुश नहीं रहते। हमारी चा‍ही एक सफलता हमें मिल जाती है तो हम दूसरी की ओर दौड़ने लगते हैं। अब आप ही बताइए कि हम एक आम व्‍यक्ति को सफलता के किस तराजू में तौले?

Tuesday, April 14, 2009

लघुकथाएं - महादान, रिश्‍ते और आदत

महादान
कुछ वर्ष पूर्व राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में अकाल पड़ा हुआ था। हमने अपनी संस्था के माध्यम से गाँवों में कुएं गहरे कराने का कार्य प्रारम्भ किया। किसान के पास इतना पैसा नहीं था कि वह स्वयं अपने कुओं को गहरा करा सके। जनजाति समाज के स्वाभिमान को देखते हुए रूपए में से पच्चीस पैसे किसान से भी लिए गए। किसानों के अपना हिस्सा अग्रिम रूप से जमा करा दिया। बारी-बारी से सभी के कुएं गहरे कराने का काम प्रगति पर था। कुएं अधिक थे और समय कम। मनुष्य जब प्रयास करता है तब प्रकृति भी उसका साथ देती है, इसी कारण काम पूरा होने से पूर्व ही वर्षा ने अपनी दस्तक दे दी और रामदीन के कुएं में भी पानी की आवक हो गयी। रामदीन उस दिन बहुत खुश था। क्योंंकि उसके कुएं में पानी आ गया था। अकाल के समय कैसे पाई-पाई जोड़कर उसने पैसे एकत्र किए थे? भगवान ने उसकी सुन ली थी। हमारा काम भी बंद हो गया था। हम उसे पैसे वापस करने के लिए गए।
उसने कहा कि मुझे पानी चाहिए था और प्रभु ने मेरा काम कर दिया। अब मैं इस पैसे का क्या करूंगा? आप इसे कहीं और लगा दे, और उसने पैसे वापस लेने से मना कर दिया।

रिश्ते
एक दिन उदयपुर से आबूरोड की यात्रा बस से कर रही थी। जनजातीय क्षेत्र प्रारम्भ हुआ और एक बीस वर्षीय जनजातीय युवती मेरे पास आकर बैठ गयी। मेरा मन कहीं भटक रहा था, टूटते रिश्तों को तलाश रहा था। मैं सोच रही थी कि क्या जमाना आ गया है कि किसी के घर जाने पर मुझे आत्मीय रिश्तों की जगह औपचारिकता मिलती है और सुनने को मिलता है एक सम्बोधन - आण्टी। इस सम्बोधन से ‘हम एक परिवार नहीं है’ का स्पष्ट बोध होता है। मुझे बीता बचपन याद आता, कभी भौजाईजी, कभी काकीजी, कभी ताईजी, कभी बुआजी, कभी जीजीबाई आदि सम्बोधन मेरे दिल को हमेशा दस्तक देते हैं। लेकिन आज मेरे आसपास नहीं थे ये सारे ही। मेरे समीप तो रह गया था शब्द, केवल आण्टी। इन शब्दों के सहारे हमने दिलों में दूरियां बना ली थी।
मैं किसी कार्यक्रम में भाग लेने जा रही थी और मुझे वहाँ क्या बोलना है इस बात का ओर-छोर दिखायी नहीं दे रहा था। इतने में ही झटके के साथ बस रुकी। एक गाँव आ गया था। नवम्बर का महिना था और उस पहाड़ी क्षेत्र में इस महिने बहुतायत से सीताफल पकते थे। अतः बाहर टोकरे के टोकरे सीताफल बिक रहे थे। मेरे पास बैठी युवती बस से उतरी और हाथ में सीताफल लेकर बस में वापस चढ़ गयी। उसने एक सीताफल तोड़ा और मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोली कि ‘बुआजी सीताफल खाएंगी’?

आदत
मेरा नौकर नारायण जनजातीय समाज का था। इस समाज में सुबह काम पर निकलते समय और शाम को काम से वापस आने के बाद ही भोजन करने की आदत है। ऐसी ही आदत नारायण की भी थी। मेरे यहाँ वह सुबह नौ बजे आता और शाम को चार बजे जाता। दिन में हम सब को वह भोजन कराता, लेकिन स्वयं नहीं खाता। मैं उससे हमेशा कहती कि खाना खाले, लेकिन नहीं खाता। एक दिन मैंने डाँटकर उसे कहा कि खाना क्यों नहीं खाता? सारा दिन यहाँ काम करता है और मुँह में दाना भी नहीं डालता, कैसे काम चलेगा?
तब वह बोला कि हम लोग दो समय ही खाना खाते हैं, एक सुबह और एक शाम। सुबह मैं खाना खाकर आता हूँ और शाम को जाकर खाऊँगा। यदि दिन में आपके यहाँ खाना खाने लगा तो मेरी आदत बिगड़ जाएगी।

Tuesday, April 7, 2009

लघुकथाएं - छिलके, अपना प्राप्‍य, फिजूलखर्ची

छिलके

शहर से 10 किलोमीटर की दूरी पर बसा एक जनजातीय गाँव। अधिकांश लोग या तो खेती करते या फिर शहर में मजदूरी करने आते। एक दिन वहाँ एक कार्यक्रम के निमित्त जाना था। जाते समय, साथ में बच्चों के लिए केले ले लिए। छोटा सा कार्यक्रम रखा हुआ था गाँव वालों के लिए, सारे ही गाँव वाले एकत्र हुए। कार्यक्रम के बाद हमने बच्चों को केले बाँटे। बच्चों ने केले खाए और छिलके वहीं फेंक दिए।
मैंने बच्चों से कहा कि बेटा ये छिलके उठाओ और पास बैठी गाय के सामने डाल दो।
एक वृद्ध व्यंग्यात्मक रूप से बोला कि गायें केले के छिलके नहीं खाएंगी।
मैंने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है? बच्चों तुम ये छिलके गाय के सामने डाल दो।
उन्होंने ऐसा ही किया, लेकिन गाय ने छिलकों की तरफ देखा ही नहीं।
मैं अचम्भित थी, मैंने बच्चों से कहा कि ऐसा करो कि जो वहाँ बकरी बैठी है, उसे डाल दो।
बकरी ने छिलके देखकर मुँह घुमा लिया। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यूँ हो रहा है?
वृद्ध बोला कि गाय छिलकों को पहचानती नहीं हैं।

अपना प्राप्य

सुबह उठकर जैसे ही मैंने वाशबेसिन का नल खोला, देखा कि वहाँ से नन्हीं-नन्हीं चीटियां कतार बनाकर कहीं चली जा रही हैं, उनकी दो कतारे बनी हुई थीं, एक जा रही थी और एक वापस लौट रही थीं। वापस लौटने वाली चीटियों के मुँह में एक दाना था। मेरी निगाहों ने उनका पीछा किया। निगाहें चीटियों के साथ-साथ चल रही थीं। एक जगह जाकर चीटियां रुक गयीं थी, निगाहें भी रुकी। देखा एक छोटा सा मिठाई का टुकड़ा भोजन की टेबल पर पड़ा था, वे सारी चीटियां कतारबद्ध होकर उसका एक-एक कण अपने मुँह से पकड़कर वापस लौट रही थीं। कहीं कोई बदहवासी नहीं, रेलमपेल नहीं, बस था तो एक अनुशासन। तभी घर के बाहर शोर सुनायी दिया। बाहर आकर देखा, एक सेठजी के हाथ में मिठाई का डिब्बा था, उनके चारों तरफ मांगने वालों की भीड़ थी और कुछ बच्चे उनसे छीना-झपटी कर रहे थे। इसी छीना-झपटी में मिठाई का डिब्बा हाथ से छूट गया और सारी मिठाई सड़क पर गिर कर बेकार हो गयी। सेठजी नाराज हो रहे थे और बच्चों पर चिल्ला रहे थे। तभी चीटियों पर नजर पड़ी, मिठाई के टुकड़े का अस्तित्व समाप्त हो चुका था और चीटियां वैसे ही कतारबद्ध लौट रही थीं।

फिजूलखर्ची

पानी की समस्या मेरे शहर में विकराल रूप ले चुकी थी। सरकारी नलों में दो दिन में एक बार, एक घण्टे के लिए पानी आता था वह भी कम दवाब से। घरों के बोरिंग भी सूख चले थे। घर में नजर घुमाती तो चारों तरफ लगे नल मुझे चिढ़ाते। आदतों से लाचार हमें वाशबेसन के नल या टायलेट के नल फिजूलखर्ची करते बच्चे से लगते। लेकिन वे भी हमारी जरूरत थे, हम उन्हें बंद नहीं कर सकते थे। ऐसे ही एक दिन मैं, पानी की समस्या से जूझ रही थी। मुँह में ब्रश का झाग भरा था और वाशबेसन से पानी नदारत। मैं झुंझला उठी। इतने में ही दरवाजे की घण्टी चहक उठी। मैं दरवाजे की तरफ देखती हूँ, बाहर सफाई कर्मचारी खड़ी है। मैं वैसे ही दरवाजा खोल देती हूँ।
वह पूछती है कि क्या पानी गया?
मैं कहती हूँ कि हाँ गया।
वह हँसती है, कहती है कि पानी की समस्या केवल आप लोगों की बनायी हुई है, हम तो इस समस्या से ग्रसित नहीं हैं।
मैं पूछती हूँ कि कैसे?
हम सुबह उठते हैं, पास के तालाब में जाते हैं, वहाँ स्नान करते हैं, कपड़े भी धोते हैं और पास लगे हैण्डपम्प से एक घड़ा पानी पीने के लिए ले आते हैं। न हमारे यहाँ वाशबेसन का चक्कर, ना लेट्रीन का चक्कर।

Thursday, April 2, 2009

लघुकथाएं : प्रभु की पूजा, बाबा और आम

लघु कथाएं गद्य की वो विधा है जो अपनी बात को संक्षिप्‍त रूप में कह देती है। लीजिए लघुकथाएं नियमित रूप से पढ़िए और अपनी टिप्‍पणी भी दीजिए।

प्रभु की पूजा

अपने घर में बने भगवान के आले में अगरबत्ती जलाकर भगवान को प्रणाम करने के लिए मेरे कदम कक्ष पहुंच जाते हैं। सामने भगवान की मूरत है, भगवान हँस रहे हैं। मैं उन्हें देख ठिठक जाती हूँ, अगरबत्ती की ओर बढ़े मेरे हाथ रुक जाते हैं। मैं क्यों पूजा कर रही हूँ? मन प्रश्न करता है। क्यों इस नन्हें कृष्ण को नहलाती हूँ? क्यों इसे लड्डू का भोग लगाती हूँ? क्यों इसका शृंगार करती हूँ? एक दिन मेरा मन भी इस नन्हें कृष्ण को पुत्र रूप में पाने के लिए नहीं मचल उठेगा? क्या मेरा मन नहीं करेगा कि इसे छू लूँ, इससे बातें कर लूँ? जब भी मन ने किसी रिश्ते को पकड़ना चाहा क्या वह मेरे हाथ लगा? मन उन रिश्तों की टूटन से कितना द्रवित हुआ था तो एक अपेक्षा फिर क्यूँ। मैं केवल प्रभु को मेरे मन के अंदर ही रखूंगी, उनको किसी भी रूप में कैद नहीं करूंगी। पट बंद हो गए और साक्षात दर्शन भी, अब केवल मन की आँखें खुली थीं।

बाबा

बड़े दिनों बाद सपना अपने मैके गयी है, भाई के चेहरे पर प्रसन्नता नहीं है, भाभी के चेहरे पर भी नहीं। वह कारण जानना चाहती है, पूछती है कि कोई विशेष बात हुई है? भाई कुछ नहीं बोलता लेकिन भाभी बताती है कि इन दिनों तुम्हारे पिताजी को न जाने क्या हो रहा है? सपना प्रश्नवाचक चिन्ह सा मुँह बनाकर भाभी की ओर देखती है। भाभी बताती है कि उनके गाँव से उनके एक भतीजे का बेटा आता है, उसे हम जानते हैं कि वह बड़ा चालबाज है। तुम्हारे पिता जो कभी किसी को भी एक पैसा नहीं देते, पता नहीं उसने ऐसा क्या जादू किया है कि वे उसे पैसा दे रहे हैं। सपना पिता के पास जाती है, उनसे पूछती है कि क्या प्रकाश आया था और क्या आपने उसे पैसे दिए हैं? वह कहते हैं कि हाँ दिए हैं। वह पूछती है कि आप तो कभी किसी को भी एक पैसा नहीं देते फिर प्रकाश को क्यों? वे बोलते हैं कि वह आकर मुझे बड़े प्यार से ‘बाबा’ कहकर बुलाता है, मेरे पास आकर बैठता है।

आम

सुनीता के घर नौकर के रूप में एक गाँव का लड़का काम करता है। वह वहीं रहता भी है। गर्मियों का मौसम है, इस बार आम की फसल बहुत अच्छी हुई है। रोज ही फ्रिज आम से भरा रहता। कई बार कुछ आम खराब भी हो जाते। कई बार सुनीता का मन होता कि एक आम लड़के को भी दे दे। लेकिन उसकी सास उसका हाथ पकड़ लेती, बोलती कि कहीं नौकरों को आम खिलाए जाते हैं? लड़का आम की तरफ देखता भी नहीं। एक दिन उसे छुट्टी चाहिए थी, बोला कि गाँव जाना है, सुबह वापस आ जाऊँगा। सुनीता ने उसे छुट्टी दे दी। दूसरे दिन लड़का आ गया, हाथ में उसके एक छोटा थैला था। सुनीता ने पूछा कि इसमें क्या है? वह बोला कि मेरे खेत में एक आम का पेड़ है, उसमें केरियां पकने लगी थी, इसलिए मैं दीदी के लिए कुछ चूसने वाले आम लेकर आया हूँ। दीदी को चूसने वाले आम पसन्द है न?

Thursday, March 19, 2009

पुरुष विमर्श - आनन्द खोने का डर

पीहर से आते हुए मेरी माँ की मुट्ठी में मेरे मामा चंद रूपए रख देते थे। इसे अनमोल खजाना समझ वह फूली नहीं समाती थी। घर आते ही सहजता और गर्व मिश्रित भाव से पिताजी को बता देती कि भाई ने क्या दिया है। पिताजी कुछ क्षण चुप रहते लेकिन दूसरे ही क्षण फरमान जारी कर देते, जितना पैसा है, मुझको दे दो। माँ समझ नहीं पाती कि क्या मुट्ठी भर पैसा भी मुझे अपने पास रखने का अधिकार नहीं? जीत अंत में पिताजी की ही होती। घर में क्लेश न हो यही भाव माँ का बना रहता। तब की एक पीढ़ी गुजर गई, दूसरी पीढ़ी भी गुजरने की तैयारी में है लेकिन मुट्ठी में पैसा रखने की मानसिकता नहीं बदली। हाँ समर्पण की भावना बदल गई परन्तु एक बहस चालू हो गई। पुरुष और स्त्री के अधिकारों की बहस।
सत्ता, समर्पण और डर - आज सत्ता को अपने हाथ में रखने की जद्दो-जेहद परिवारों में नजर आ रही है। मेरे पिता की पीढ़ी में, पिता के हाथ में सत्ता थी और माँ के पास समर्पण भाव। लेकिन तब की ओर गहराई से देखे और सोचे कि क्या यह सहज प्रक्रिया थी? मेरी माँ की पीढ़ी चंद जमात पढ़ी हुई, पति को ही सर्वस्व मानने वाले सदियों के संस्कार, एक जन्म नहीं सात जन्मों का बंधन मानने वाली अर्थात पत्नी का सहज समर्पण। फिर भी चंद रूपए भी उसके हाथ में नहीं रह सकते, यह पिता की पीढ़ी का भाव क्या संकेत देता है? यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो यह मानसिक कमजोरी की निशानी है। वह इस डर से डरा हुआ है कि जो कुछ भी मेरे पास है, वह कहीं खिसक नहीं जाए। यही डर उसे हिंसक बनाता है। आज तक यही डर, पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में सभी को मिलता रहा है। एक तरह नारी का सहज समर्पण फिर भी पुरुष के मन में बसा डर! हमें सोचने पर मजबूर करता है कि यह डर क्यों है?
आज के परिपेक्ष्य में नारी के हाथ में पैसा और सत्ता दोनों ही हैं तो समर्पण का भाव तिरोहित होता जा रहा है। पुरुष को अपनी सत्ता खिसकती दिखाई दे रही है। ऐसे में हिंसा की अभिवृद्धि भी लाजमी है। जब पूर्ण समर्पण था, पति परमेश्वर था तब भी पुरुष अनजाने भय के कारण हिंसक हो उठता था तो आज साक्षात परिवर्तन को देखते हुए वह कैसे हिंसक नहीं बने? आज स्त्री और पुरुष के अधिकारों की बहस में परिवार कहीं छूट गया है। जब सम्पूर्ण सत्ता हाथ में थी तब भी डर था और आज सत्ता छिनती जा रही है तो यह डर कम होगा या बढ़ेगा? आज का प्रश्न यह है। समाज को देखें तो महिलाओं के प्रति सम्मान का भाव कम हुआ है, प्रतिद्वंद्विता बढ़ी है, हिंसा बढ़ी है अर्थात पुरुष का डर बढ़ा है। इस बढ़ते डर के साथ क्या हम स्वस्थ परिवार और स्वस्थ समाज की कल्पना कर सकते है? तो क्या हो? क्या महिला पूर्व की भांति समर्पण कर दे? क्या तब यह डर कम हो जाएगा? नहीं! इसका उत्तर सम्पूर्ण समाज को खोजना होगा। पुरुष के इस डर को निकालना होगा। जब तक यह डर उसके मन में घर कर के बैठा रहेगा समाज से हिंसा नहीं थमेंगी। नारी यदि पहले से भी अधिक समर्पण कर दे तो भी पुरुष की हिंसा नहीं थमेगी। हिंसा थमेगी केवल डर के भाव के मन से निकलने पर।
एक प्रश्न यह डर क्यों? दूसरा प्रश्न डर कैसे छूटे?
किसी विद्वान ने कहा था कि व्यक्ति मृत्यु से नहीं जीवन के समाप्त होने से डरता है। अर्थात हमारा सुख छूट जाएगा यह डर व्यक्ति को मृत्यु से डराता है। इसी प्रकार पुरुष अपना आनन्द महिला के साहचर्य में ढूंढता है, बस यही डर का कारण है। मेरा आनन्द समाप्त ना हो जाए उसकी सोच का प्रमुख विषय यही है। इसलिए ही विवाह पद्धति में पत्नी छोटी हो, कम आयु वाली हो तथा कम पढ़ी-लिखी हो आदि बातें प्रमुख रहती हैं। येन-केन-प्रकारेण अपनी मुट्ठी में अपने आनन्द को रखने का जतन। अब प्रश्न है डर कैसे छूटे? क्या पुरुष के चाहने मात्र से उसका डर कम होगा? क्या महिला के अधिकार सम्पन्न होने से पुरुष का डर कम होगा? क्या महिला के समर्पण से डर कम होगा? ये सारे ही समाधान समाज खोज चुका है। लेकिन पुरुष का डर समाप्त नहीं हुआ। तो फिर कैसे दूर होगा डर? शायद इस डर को एक माँ निकाल सकती है। क्योंकि माँ ने ही बच्चे का सृजन किया है उसका संवर्द्धन किया है। पिता की भूमिका भी शिक्षक की रह सकती है। अतः आज अधिकारों की बात ना करते हुए इस डर को निकालने में सहयोग करना चाहिए। विवाह पद्धति इस डर को बहुत कम करती थी लेकिन आज टूटती विवाह पद्धति इस डर को फिर बढ़ा रही है और हिंसा को जन्म दे रही है। इसलिए मेरी माँ की पीढ़ी को देखें तो उस पीढ़ी में कितना डर था या हिंसा थी और आज की पीढ़ी को देखे तो कितना डर है या हिंसा है? निःसंदेह पहले की पीढ़ी में कम हिंसा थी तथा कम डर था। आज यह डर पुरुष से निकलकर महिला तक में समा गया है। पहले कोई तलाक का डर नहीं था आज तो सम्बंध विच्छेद आम बात है। इसलिए विवाह पद्धति के सुदृढी़करण की आवश्यकता है। आप कह सकते है कि पहले महिलाओं पर अत्याचार अधिक थे लेकिन केवल कह देने से मान्यता नहीं मिलती। साक्षात अपने परिवारों में झांकना होगा कि सच क्या था? जहाँ डर अधिक हावी था वहीं अत्याचार था। जहाँ आनन्द के अतिरेक की चाहत थी वहीं अत्याचार था, जहाँ आनन्द को घर के बाहर भी खोजा जा रहा था वहीं अत्याचार था। सात्विक पुरुष ने कभी अत्याचार नहीं किया। अतः सभी को एक तराजू में तौल देने से समाज सुदृढ़ नहीं होता। अतः विवाह पद्धति को सुदृढ़ करना पहली और व्यभिचार को कम करना दूसरी आवश्यकता है।
व्यभिचार का भाव जन्मजात ही होता है अतः संस्कार ही इस अवगुण को कम कर सकते हैं। ऐसी पीढ़ी को मानसिक रोगी की तरह देखना चाहिए और सम्पूर्ण परिवार व समाज को उत्तरदायित्व लेना चाहिए कि वे ऐसे नवयुवकों को संस्कारित करे। उनका उपाय खोजें। दूरदर्शन पर घर बैठे ही सुलभ हो रहे नारी देह प्रदर्शन, व्यभिचारी पुरुष का व्यभिचार बढ़ाने में योगदान कर रहे हैं। परिणाम बलात्कार के रूप में सामने हैं। अतः संयमित आनन्द की ओर पुरुष को ले जाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। आज आनन्द को बढ़ावा देना हमारी प्राथमिकता बनती जा रही है। सिनेमा, दूरदर्शन, फैशन शो आदि अनेक उपक्रम केवल आनन्द के लिए ही हैं। अतः आनन्द की खोज की जगह कार्य की खोज होनी चाहिए। व्यक्ति श्रम में आनन्द ढूंढे, पठन-पाठन में आनन्द ढूंढे, खेल में आनन्द ढूंढे, अपने परिवार में आनन्द ढूंढे। अतः अकेले होते जा रहे व्यक्ति को परिवार की आवश्यकता है। जब वह विभिन्न रिश्तों की महक जानेगा तभी दैहिक आनन्द को प्राप्त करने की भूख कम होगी। अतः तीसरी आवयकता है परिवार। यदि परिवार और विवाह पद्धति को हमने सुदृढ़ कर लिया तो पुरुष का डर निकलेगा उसका व्यभिचारी मन संस्कारित होगा और वह निर्माण की और प्रवृत्त होगा।

Saturday, March 14, 2009

नारी विमर्श

क्या है नारी विमर्श? नारी पर चिंतन कभी थमता क्यों नहीं? समाज का वह कौन सा सत्य है जो नारी को सदैव सुर्खियों में रखता है? कल भी और आज भी, नारी एक ओर जगतजननी के रूप में दिखायी देती है तो दूसरी तरफ रति-स्वरूपा। जगतजननी और रति का संघर्ष आज का नहीं है, यह सदियों पुराना है। लेकिन कल और आज में एक वृहत अन्तर दिखायी देता है। कल तक पुरुष चरित्र को संस्कारित करने के लिए प्रयत्न किए जाते थे, उसे सतत इन्द्रिय-निग्रह का पाठ पढ़ाया जाता था, लेकिन आज पुरुष संस्कार की बात बिसरा दी गयी है अपितु नारी को ही पुरुष के समकक्ष खड़ा होने का उपदेश दिया जा रहा है। इतना ही नहीं कुछ तो नारियों को भी पुरुष के समान स्वच्छंदता के हक की बात करने लगे हैं। अर्थात् पुरुष की काम-वासना नारी को असुरक्षित और अपमानित करती रही है और अब नारी स्वयं उसका भोग्य बनेगी। पूर्व में सारे ही वेद-पुराणों में वर्णित कथानक पुरुष को संस्कारित करते हुए और नारी को देवी-रूप में स्थापित करते हुए दिखायी देते हैं। पुरातन काल में जब-जब पुरुष ने अपनी मर्यादा तोड़ी तब-तब साहित्यकारों ने, चिंतकों ने नारी के सम्मान में अपनी कलम को उठाया। उन्होंने समय-समय पर कहा कि ‘यत्र नारयस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता’। इतना ही नहीं उसके मातृस्वरूप को लक्ष्मी, दुर्गा और सरस्वती के रूप में भी प्रतिष्ठापित किया। इतना ही नहीं जब कुन्ती, सूर्य के कारण कर्ण को जन्म देती है तब भी उसने कुन्ती को और दुष्यन्त के कारण जब शकुन्तला भरत को जन्म देती है तब शकुन्तला को सम्मानपूर्वक जीवन का अधिकार दिया और पाषाण-शिला बनी अहिल्या को भी पुनःजन्म दिया। पुरातन काल में नारी विमर्श के स्थान पर पुरुष-विमर्श, पुरुष को संस्कारित करने के लिए स्थापित किया गया। हमारे चिंतकों ने समाज की मर्यादा को सर्वोपरि माना और उसके स्वच्छ, धवल स्वरूप की स्थापना के लिए सतत प्रयास किए। सुधार कहाँ किया जाना चाहिए, इस पर चिंतन किया और इस चिंतन से सुधार हुआ भी। अतः कल तक का पुरुष विमर्श आज नारी विमर्श में तब्दील हो गया है और नारी की पीड़ा कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही है। हमारे मनीषी चिंतन दे सकते थे, उसे संस्कृति के रूप में अबाध प्रवाहित कर सकते थे, लेकिन मनुष्य के अंदर छिपे शैतान को पूर्ण रूप से शान्त नहीं कर सकते थे। पुरातन काल में सर्वाधिक चिंतन मनुष्य की काम-वासना पर ही किया गया, उसे संस्कारित करने के अनेक उपाय किए गए। बाल्यकाल से लेकर वृद्धावस्था तक, इन्द्रिय-निग्रह का सतत पाठ पढ़ाया जाता रहा, लेकिन फिर भी मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति कब दावानल में परिवर्तित हो जाती, इसका अनुमान स्वयं मनुष्य को भी नहीं होता और फिर नारी अहिल्या बनकर पत्थरवत् जड़ मौन हो जाती। पुरातन काल में माना गया कि ‘काम’ केवल गृहस्थ का धर्म है और इसकी अति दोष है। इसी दोषनिवारण के लिए गृहस्थों से लेकर संयासियों तक ने तपस्या की। लेकिन आज नारी के काम को ही उत्तेजित किया जा रहा है।
युग बदलते गए लेकिन मनुष्य की प्रवृत्ति टस से मस नहीं हुई, वह कल भी शिव-राम-कृष्ण का रूप था और आज भी है, लेकिन उसके शिवत्व में कब इन्द्र प्रवेश कर गया, उसके रामत्व में कब रावण समा गया और कब कृष्णत्व में दुर्योधन प्रवेश कर गया, यह उसे भी नहीं मालूम। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूम रही है, चन्द्रमा भी और सूर्य भी। अकस्मात चन्द्रमा भटक जाता है और पृथ्वी अंधकार रूपी त्रस्त को भोगती है। यही अंधकार कलुषित है, तभी ग्रहण में शुद्धि का विधान है। भारत में मनीषियों ने इस दुरूह रोग के निवारण के लिए संस्कारों की पाठशाला अनवरत संचालित की। प्रकृति ने दानव और मानव दोनों ही श्रेणियों को अभयदान दिया। दानव किसी संस्कार को नहीं मानते, संस्कृति में नहीं बंधते, उन्हें केवल अपनी शक्ति से इन्द्रियों के सुख बटोरने की आदत है, वे केवल भोग को ही सुख मानते हैं। उन्हें अपना दानव-स्वरूप ही सुख के साधनों के लिए उपयुक्त लगता है, वे सोचते है कि यदि दानवता का चोला हट गया तब फिर हमारे इन्द्रिय जनित सुख सरलता से प्राप्त नहीं होंगे। वर्तमान में भी यही स्थिति है, कमजोर पुरुष ने भी ताकतवर बनने का चोला पहन लिया है, कभी दाढ़ी बढ़ाकर, कभी केश बढ़ाकर, या फिर विचित्र और डरावनी वेशभूषा के द्वारा। रावण की राक्षसी प्रवृत्ति और साधु के मुखौटे ने सीता का हरण किया, तब लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती स्वरूपा नारी के अस्तित्व पर भी प्रश्नचिन्ह लगा। साहित्यकारों ने बार-बार नारी की अवधारणा को रेखांकित किया इसी कारण मुगलकाल के पूर्व तक नारी स्वाभिमान से जीती रही।
मानव को मानव बने रहने का यह संघर्ष चल ही रहा था कि एक नवीन सिद्धान्त ने मानवता के राह में कांटे बो दिए और मनुष्य को दानव बनाने की छूट दे दी। सिद्धान्त में कहा गया कि नारी भोग्या है, उसमें आत्मा भी नहीं होती अतः हे पुरुष तू उसका जैसे चाहे वैसे भोग कर। सिद्धान्त सुनामी की तरह आया और सारे ही तटबन्ध टूट गए। समुद्र सम्पूर्ण मर्यादाओं को तोड़ता हुआ प्रकृति को नेस्तनाबूद करने पर उतारू हो गया। त्राहि-त्राहि मच गयी, सभ्यताएं असुरक्षित हो उठी और सुरक्षित ठिकानों की ओर मानव दौड़ पड़े और नारियों को सात तालों में अमूल्य निधि के रूप में बंद कर दिया गया। कैसा भी वेग हो, एक दिन मन्द पड़ता ही है और यह दावानल भी भोग की चरम सीमा को पारकर शान्त होने की ओर बढ़ने लगा, तब मानवों ने फिर से नारी के ताले खोलने प्रारम्भ किए। कहीं सति-प्रथा का ताला तो कहीं बाल-विवाह का, कहीं अशिक्षा का तो कहीं पर्दा-प्रथा का। इसे नवीन सामाजिक चेतना का नाम दिया गया। कहीं-कहीं नारी-मुक्ति का नाम भी उछाला गया।
शिक्षा का प्रभाव सर्वत्र व्यापक हुआ, नारी ने भी कलम को पकड़ा और अपनी दास्तान लिखना प्रारम्भ किया। इसे नया नाम मिला नारी-विमर्श। नारी की समस्या समाज की समस्या से पृथक हो गयीं समाज कहने लगा या समाज के प्रतिनिधि के रूप में पुरुष ने भी कहा कि यह नारी की समस्या है। कहीं-कहीं पुरुष ने अपना दम्भ दिखाना प्रारम्भ किया, वे कहने लगे कि नारी पर अत्याचार हो रहा है, लेकिन यह नहीं कहा कि नारी पर हम अत्याचार कर रहे हैं। बस केवल नारी को अबला बताने और सिद्ध करने में ही उनका पुरुषत्व लग गया। मनीषी, समाज-चिंतक, ऋषि-मुनि भी जहाँ पूर्व में सनातन काल से ही पुरुष को संस्कारित करने में लगा था, उसे अनवरत इन्द्रिय-निग्रह का पाठ पढ़ाया करता था, अब वह केवल नारी-विमर्श की बात करने लगा। संस्कार परे हटे और पुरुष उच्छृंखल होता चला गया। जब तक नवीन सभ्यता ने भी पैर पसारने प्रारम्भ किए, पूर्व में दानवता परिभाषित थी लेकिन अब उसने भी नया सम्भ्रान्त चोला ओढ़ लिया। अब मानव और दानव का बाह्य स्वरूप का अन्तर समाप्त हो गया। दोनों में भेद करना कठिन हो गया। इसी कारण नारी छली जाती है।
जब नारी सात तालों में बन्द की गयी और उसके बाद जब से उसके ताले खुलने शुरू हुए तभी से नारी को भी पुरुष की तरह शोहरत पाने की ललक लग गयी। शोहरत के मार्ग में तो कांटे ही कांटे हैं। पुरुष भी इन कांटों से होकर ही गुजरता है और जब नारी ने यह मार्ग चुना तब उसके लिए भी कांटे बिछाए गए। शोहरत के मार्ग दो होते हैं, एक मार्ग बहुत लम्बा है और दूसरा मार्ग बहुत सरल। इस दूसरे मार्ग पर पुरुष ने नारी के लिए कांटे बिछाएं हैं और जब भी कोई नारी इस सरल मार्ग को अपनाती है तब मार्ग में बिछी नागफणिया उसके आँचल को तार-तार कर देती हैं। सूक्ष्म कांटे ओढ़नी में ऐसे धंस जाते हैं कि ओढ़नी शरीर से त्यागनी ही पड़ती है। तब नारी को लगता है कि मैं छली गयी। उसे नियति तभी लम्बा मार्ग दिखाती है और कहती है कि यदि तुमने यह लम्बा कर्म का मार्ग चुना होता तो पाँव में बिवाई तो फट सकती थी लेकिन दामन सही-सलामत रहता। शोहरत और सफलता तो कर्मों की दासी है, कर्म करते रहिए, शोहरत और सफलता स्वतः ही दबे पाँव आपके दाएं-बांए खड़ी दिखायी देंगी। इस शोहरत के छोटे मार्ग ने भी नारी-विमर्श को जन्म दिया।
आज नारी की पीड़ा इतनी बढ़ गयी है कि मानवता लज्जित होने लगी है। जहाँ पूर्व में मनीषियों ने नारी को देवी रूप में स्थापित कर उसे पूज्य बनाया वहीं वर्तमान में नारी की स्थिति पतंगे के समान हो गयी है। वह स्वयं ही आग के साथ खेलने लगी है और इसका उदाहरण भारतीय चल-चित्र है। न्यूयार्क में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन में एक अप्रवासी भारतीय शिक्षिका ने प्रश्न किया कि हम भारतीय चल-चित्र को बॉलीवुड क्यों कहते हैं? उनका मकसद शायद हिन्दी प्रेम ही था, लेकिन मैं यहाँ कहती हूँ कि बॉलीवुड कहने से हम हॉलीवुड की नकल करते हैं और वैसी ही अश्लीलता एवं नारी का रूप हम सिनेमा के पर्दे पर दिखाते हैं लेकिन जब हम भारतीय चल-चित्र कहते हैं तब हम हमारे सिनेमा को भारतीयता का मार्ग दिखाते हैं। दुनिया हमारी तरफ देख रही है और हम दुनियाभर की अश्लीलता अपने यहाँ परोस रहे हैं। नारी शोहरत के नाम पर स्वयं ही अपने छिलके उतार रही है। पुरुष भी मजे ले रहा है, वह भी उसे नग्नता के लिए उकसा रहा है। एक तरफ, एक वर्ग, समाज और परिवार को परम्परा के नाम पर नेस्तनाबूद कर देना चाहते हैं तो दूसरी तरफ वही वर्ग नारी को स्वच्छंदता का पाठ पढ़ा रहा है। परिणाम होता है कि कल तब पुरुष को नारी को पाने के लिए प्रयास करना पड़ता था, कहीं-कहीं छल करना पड़ता था, अब तो वह स्वयं कटी पतंग की तरह उसकी बाहों में आकर गिर जाती है। पूर्व में समाज, नारी की रक्षा करता था और अब समाज का वजूद ही समाप्ति की ओर है।
आज नारी-विमर्श के द्वारा नारी पर हुए अत्याचार और उसकी स्वतंत्रता के लिए उसकी स्थिति को दर्शाया गया है। लेकिन एक प्रश्न मेरे मन में बेताल के प्रश्न की तरह निकल आता है कि नारी की पीड़ा, जो उसने स्वयं ने भोगी है, उस पीड़ा को पुरुष कैसे लिख सकता है? जिसने जो अनुभव किया ही नहीं वह क्या जाने पीर पराई। आप जितने भी नारे देखेंगे वह पुरुष की सत्ता को दर्शाते हैं, जैसे पुरुष प्रधान समाज, नारी अबला है, आदि-आदि। जबकि पुरातन काल में पितृ-सत्तात्मक या मातृ-सत्तात्मक परिवार होते थे और नारी महिषासुर-मर्दिनी के रूप में प्रतिष्ठित थी। आज नारी भी स्वयं को अबला मानने पर उतारू है। वह इस बात से भी अनभिज्ञ है कि उसने पुरुष को जन्म दिया है और उसके अंदर बुद्धि और बल का संधारण उसने ही किया है। फिर भी पश्चिम के प्रभाव से नारी पर सातवीं शताब्दी से ही अत्याचार होने प्रारम्भ हुए तो उसे लिखने दीजिए अपने दर्दो का लेखा-जोखा। नारी पर किसने अत्याचार किए, कौन कर रहा है, कैसे अत्याचार हैं, इन सबका उत्तर नारी ही दे सकती है। उसे ही लिखने दीजिए अपने दर्दो का हिसाब, उसे ही ढूंढने दीजिए अपने मार्ग। जैसे पूर्व में समाज उसके साथ खड़ा था, वैसे ही सभी को उसके साथ खड़ा होना चाहिए। समाज को पुनः यह सिद्ध करना चाहिए कि नारी अबला नहीं अपितु दुर्गा है। साथ ही पुरुष के पतन के प्रति भी उसकी दृष्टि जानी चाहिए क्योंकि आज जितना पतन पुरुष का हुआ है, उतना पतन किसी भी काल में नहीं हुआ था, अतः उसे पुनः संस्कारित करने की आवश्यकता है। लेकिन यह भी निर्विवादित सत्य है कि पूर्व में केवल पुरुष को संस्कारित किया जाता था, लेकिन आज दोनों को ही संस्कारित करने की आवश्यकता आन पड़ी है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमारा चल-चित्र है, जिसमें पुरुष से भी अधिक नारी असंस्कारित दृष्टिगोचर हो रही है।
डॉ. श्रीमती अजित गुप्ता

Saturday, February 28, 2009

बिटिया ने उपहार दिया, मैं नानी बन गयी

अभी 28 फरवरी का प्रारम्‍भ होने जा ही रहा था कि मेरी बिटिया ने मुझे बहुत ही सुन्‍दर उपहार दिया, एक नाजुक सी बिटिया और मैं यकायक माँ से नानी बन गयी। उसके आगमन के साथ ही डॉक्‍टर ने मुझे उसे दिखाया, उस नन्‍हीं परी ने मुस्‍करा कर, पूरी आँखों को खोल कर मेरा स्‍वागत किया। मानो कह रही हो कि नानी मैं आपके जीवन में एक नया सवेरा लेकर आ रही हूँ। बिटियाएं कितनी प्‍यारी होती हैं, उसे छूते ही मुझे लगा की मेरे अन्‍दर भी एक नव अंकुर फूट गया है। अपनी खुशियाँ, अपनों में ही वितरित की जाती हैं, अत: आप सबसे अपनी खुशियाँ बाँट रही हूँ। क्‍योंकि नानी बनना बहुत ही प्‍यारा सा अहसास होता है।

Sunday, February 22, 2009

दिल्‍ली-6 - ढूंढते रह जाओगे, कुछ नहीं पाओगे

बहुत वर्षों बाद थियटर में फिल्‍म देखनी पड़ी। आग्रह था बिटिया का, वह शुभ समाचार सुनाने वाली है तो उसकी इच्‍छा अभी सर्वोपरि है। फिर शहर में एक पुराने थियटर को नया रूप दिया गया था तो उसे भी देखने का चाव था। सोचा था कि दिल्‍ली का दिल फिल्‍म में होगा, पर यहाँ तो अपना ही दिल निकल गया। ऐसा लगा कि निदेशक को किसी भी कलाकार पर भरोसा ही नहीं था, बस सब कुछ टुकड़ों में था। अनावश्‍यक साम्‍प्रदायिकता ठूंसी गयी थी, चुनाव आ रहे हैं तो बताना तो पड़ेगा ही न कि हमारे मध्‍य कितने झगड़े हैं? हम चाहे कितने ही प्रेम से रहने का प्रयास करें ये फिल्‍म वाले और मीडिया वाले खुरंट को नोच ही लेते हैं।
बहुत पहले दूरदर्शन पर एक फिल्‍म आयी थी, वो जमाना था दूरदर्शन का। फिल्‍म का नाम था उसकी रोटी। ऊस समय घर का कमरा आस-पड़ौस से भर जाता था लेकिन जैसे ही वो फिल्‍म शुरू हुई लोग खिसकने लगे और आखिर में मैं और एक और बुद्धिजीवी ही शेष बचे। कुछ दिनों बाद धर्मयुग में एक व्‍यंग्‍य छपा - सूर्यबाला का, जिसमें लिखा था कि एक आदमी को पागल कुत्ते ने काट खाया था और डाक्‍टर ने उससे कहा कि या तो चौदह इंजेक्‍शन लगाओ या फिर शहर में चल रही फिल्‍म को देख लो। कल वो ही वाकया याद आ गया। पहली बार 200 रू। एक टिकट के बहुत खले।
गाना गेंदा फूल भी अनावश्‍यक ही ठूंसा गया था। छोटी सी प्रस्‍तुति थी, कब शुरू हुआ और कब समाप्‍त पता ही नहीं चला। निदेशक को भी विश्‍वास नहीं था कि फिल्‍म कमाल करेगी, इसलिए अन्‍त में अमिताभ की आत्‍मा को भी बुला लिया और दोनों बाप-बेटे आत्‍मा रूप में बतियाने लगे। लेकिन फिर हीरो को जीवित ही रख दिया गया। अपनी आप सब के समय की और जेब की सलामती चाहती हूँ इसलिए ही यह लिख दिया है और इससे यह भी मालूम पड़ गया होगा कि सर मुंडाते ही ओले पड़े।

Monday, February 16, 2009

अपनी लकीर को बचाएं

जीवन में लकीरे जन्म के साथ ही आपकी परछाई की तरह संगिनी बनकर रहती हैं। इनका स्वरूप कभी हाथ की साक्षात् रेखाओं में नजर आता है और कभी भाग्य रेखा बनकर ललाट पर अंकित हो जाता है। इन भाग्य रेखाओं के अतिरिक्त भी आपके व्यक्तित्व की लकीरें समय के अनुरूप घटती बढ़ती रहती हैं। जब आप अपनी लकीर को बढ़ाने में जी जान से जुटे होते हैं तभी दूसरे लोग आपकी लकीर को घटाने में ही अपने जीवन का अर्थ ढूंढ रहे होते हैं। हमारा व्यक्तित्व जीवन की अमूल्य धरोहर बनकर हमेशा हमारे साथ बना रहता है। यह हमारी परछाई की तरह ही हमेशा साथ रहता है। कभी बौना कभी विशाल और कभी बराबर। कोई आपसे पूछे कि आपके जीवन का संचय क्या है? इस प्रश्न का उत्तर धन सम्पदा के संचयन तक जाकर ही अकसर थम जाता है। लेकिन क्या सम्पदा का संचय ही जीवन के लिए पर्याप्त होता है? नहीं! संचयन तो वास्तव में व्यक्तित्व का है। लेकिन क्या व्यक्तित्व का विकास इतना आसान है?
एक दिन की घटना अकसर ही जेहन में आ जाती है, एक मीटिंग के दौरान निरूत्तर करने वाला प्रश्न जब मेरी तरफ से पूछा गया तब मेरे समीप बैठे व्यक्ति ने कहा कि आप का तो इस सदन में पक्का पट्टा हो गया। तभी मैंने कहा था कि मेरे दोस्त यह पक्का पट्टा नहीं वरन हमेशा की छुट्टी है। हुआ भी ऐसा ही। कोई नहीं चाहता कि किसी की लकीर बढे़। आपको शुरू में लगता है कि आपके साथ बहुत लोग खड़े हैं लेकिन उनको आपके व्यक्तित्व से नहीं आपसे मतलब होता है। हर आदमी को चाहिए एक पिछलग्गू। यदि आप बनने को तैयार हैं तो आप सही हैं नहीं तो आपकी लकीर को नहीं बढ़ने दिया जाएगा। आज प्रत्येक आदमी दूसरों के व्यक्तित्व की लकीरों को ही छोटा करने में लगा है। यदि हम अपना समय अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए ही उपयोग में लेंवे तो शायद अधिक उपयोगी होगा। हम बिना दूसरों की ओर देखे स्वयं को अधिक प्रभावी बना सकते हैं। इसके लिए आवश्यक है कुछ चिंतन अपने आपके लिए।
जब हम अपने लिए सोचते हैं तो अपनी खूबियों को आसानी से पहचान नहीं पाते, अतः प्रश्न उठता है कि हम अपनी खूबियों को कैसे पहचाने? जब हम स्वयं की खूबियों को पहचान लेते हैं तब किसी की भी लकीरों को छोटा करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसके लिए आवश्यक है बस थोड़े से चिंतन की। आप जिस क्षेत्र में कार्य करते हैं उसमें किस कार्य में आपको सबसे ज्यादा अच्छा लगता है, बस वहीं से प्रारम्भ कीजिए। गृहणी से लेकर उच्च शिक्षित व्यक्तियों के लिए एक समान सिद्धांत है अपने आपको पहचानने का। यदि आप गृहणी है तो आप किस में सिद्धहस्त हैं उसी पर अपना ध्यान केन्द्रित करिए। शेष दुनिया की बातों को भूल जाइए, भूल जाइए कि आपको क्या नहीं आता बस याद रखिए कि मुझे क्या श्रेष्ठ आता है। आप में धीरे-धीरे आत्मविश्वास आता जाएगा और आप अपने काम में भी निपुण होते चले जाएंगे। यह भी ध्यान रखिए कि कौन आपके वजूद को नकारने में लगे हैं। बस उनके सामने अपनी कला का प्रदर्शन अवश्य करिए। फिर देखिए जो लोग आपको कुछ नहीं समझते थे और अक्सर आपका मखौल उड़ाया करते थे वे ही लोग आपसे किनारा करने लगेंगे। अपनी नाकामियों को कभी भी अपने पर हावी मत होने दीजिए। दुनिया में इतना कुछ है जिसे हम जान नहीं सकते, ना कोई भी जान पाया है, फिर हम ही क्यों हीनभावना से ग्रसित हों?
बस सफलता के लिए और अपनी लकीर को बढ़ाने के लिए इतना आवश्यक है कि आप अपने किसी एक काम में निपुणता हासिल करें। काम फिर वह कितना ही छोटा क्यों ना हो। छोटा सा काम ही आपको महान बना देगा। लेकिन आप यह भ्रम कभी मत पालिए कि आपको लोग आपकी खूबी के लिए पसन्द करेंगे। आपको हर हाल में अपनी लकीर को तो बचाए रखना ही होगा। आपको मुट्ठी भर प्रशंसक भी मिल जाएं तो आप अपने आपको खुशकिस्मत समझिए। जैसे ही आप अपनी लकीर को बनाने में जुट जाते हैं वैसे ही दस हाथ उसे मिटाने के लिए आगे बढ़ जाते हैं। अतः अपने कदमों को सम्भाल कर रखिए, नहीं तो निराशा आपको घेर लेंगी। कोशिश कीजिए कि ऐसे लोगों से दूर कैसे रहा जाए? इस बात को भी ध्यान में रखिए कि जितनी ईर्ष्‍या आपको घेरेगी समझिए कि उतनी ही आपकी निपुणता बढ़ रही है। अतः बिना अहंकार पाले बस अपने व्यक्तित्व विकास में जी जान से जुट जाइए, अपनी खूबियों को पहचाने और उन्हें विकसित होने दें। आप की सारी बाधाएं स्वयं दूर होती चली जाएंगी।
हम अक्सर अपने प्रशंसक तलाशते हैं। अपने कार्य की उनसे प्रशंसा सुनना चाहते हैं जो उस कार्य के बारे में जानता तक नहीं। आप कल्पना कीजिए कि हमने ए बी सी डी लिखी है। अब आप उसे किस से जांच कराएंगे? निःसंदेह जिसे ए बी सी डी आती होगी। लेकिन जिसे आती ही नहीं वह भला कैसे जांच सकता है और सही और गलत का फर्क कर सकता है? अतः जिसे आपके कार्य के बारे में कुछ भी नहीं आता वह कैसे आपकी प्रशंसा कर सकता है? यदि आप का कार्य अच्छा है और एक व्यक्ति ने भी उसे पसंद किया है तो समझिए कि वह अच्छा है। श्रेष्ठ कार्य को समझने वाले अक्सर कम ही होते हैं। प्रशंसा अक्सर वे लोग करते हैं जिनकी लकीरें आपसे बहुत बड़ी हैं या जो उस कार्य क्षेत्र में नहीं हैं। अतः प्रशंसा के लोभ में अपने आपको कमजोर मत बनाइए।
आप स्वयं के बारे में चिंतन करें कि आपने अब तक क्या पाया और क्या खोया है? आप अनुभव करेंगे कि आपको 10 लोगों की नापसंदगी मिली होगी और आप निराशा में डूबे होंगे कि मेरा भविष्य क्या होगा? लेकिन तभी आपको पदोन्नति मिल जाती है। आप अपने साथियों से कहीं आगे निकल जाते हैं। यह क्या है? यह आपके कार्य का मूल्यांकन है जो जौहरी ने किया है। अतः निराश मत होइए, जहां लकीरे मिटाने वाले हाथ आपकी ओर बढ़ रहें हैं वहीं जौहरी की पारखी नजर भी आप पर लगी है। बस कार्यक्षेत्र में जुट जाइए। अपने व्यक्तित्व को कमजोर मत होने दीजिए। सिद्धांतो से व काम से समझौता नहीं। धीरे-धीरे जौहरी आपको पहचानेगा वैसे ही आप भी जौहरी को पहचान जाएंगे और अपना माल लेकर जौहरी के पास ही जांएगे। बस धैर्य रखिए, आपकी लकीर क्षितिज छू लेगी।

Saturday, February 7, 2009

वेलेन्टाइन डे और बाल विवाह

प्रेम और विवाह दो अलग-अलग सामाजिक बंधन हैं। प्रेम जहाँ स्वतः स्फूर्त एक निर्मल झरने की तरह मन से फूटा आवेग है वहीं विवाह झरने को एक धारा में बहने के लिए बनाया गया पुल। प्रेम शाश्वत सत्य है। पुरुष और नारी का आकर्षण उतना ही यथार्थ है जितना आत्मा और शरीर का बंधन। प्रेम का बीज जन्म के साथ ही शरीर में अंकुरित होता है, फलता है और उसकी सुगंध तन से निकलकर मन को सरोबार करती हुई वातावरण में फैल जाती है। जैसे कस्तूरी मृग अपनी ही गंध से बौरा जाता है वैसे ही प्रत्येक इंसान इस प्रेम के सौरभ से मदमस्त हो जाता है। और प्रारम्भ होती है उसके आकर्षण की यात्रा। एक झरना फूटकर बह निकलता है। झरने को मालूम नहीं उसका किनारा कहाँ है, बस वह तो जो भी मौज मिली उसी पर छलका और फिर बह निकला। इसी झरने के छलकने और बह निकलने का पर्व है वेलेन्टाइन डे।
इसके विपरीत समाज ने झरने को देखा, समझा और उसके फूटने के साथ ही उसे एक धारा में बांधने का प्रयास किया। वह झरना एक सम्यक नदी बनकर शान्त गति से बह चला। इसी बंधन का नाम है विवाह। और झरने के फूटने के पूर्व ही उसे एक आकार देने का नाम है बाल विवाह। झरना तो फूटेगा ही, धारा भी बहेगी, पहाड़ियों से टकराकर अपनी सहस्त्र धाराओं में बहे या फिर पूर्ण वेग के साथ एक ही धारा में समाहित हो जाए? बस इसी अंतर को अपने में कैद करने की आवश्यकता है।
आज बाल विवाह पर आपत्ति और वेलेन्टाइन डे के खुले प्रचार ने मुझे चिंतन की ओर धकेल दिया। छोटे-छोटे बच्चों के हाथ में गुलाब और कामदेव के बाण चलाते नन्हे हाथों वाले कार्ड प्रेम के इस झरने को शीघ्रता से प्रस्फुटित होने का आह्नान कर रहे हैं। स्त्री और पुरुष के सहज प्रेम का सूत्र हाथ में लिए यह ‘डे’ प्रेम की धारा को बहने के लिए छोड़ देना चाहता है और इसी के समान बाल विवाह भी झरने के फूटने के पहले ही उसे प्रेम की व्याख्या समझाता हुआ एक निर्मल वेग से बहने की छूट देता है। कहां है दोनों में अंतर? दोनो में ही सौरभ के खिलने से पूर्व का ही प्रवाह है। बस अंतर इतना है कि एक उच्छृंखलता है और एक अनुशासन। यदि हमें बाल्यकाल से ही प्रेम का पाठ पढ़ाना है तो फिर उच्छृखंल प्रेम की जगह अनुशासित प्रेम ज्यादा उपयोगी बनेगा। व्यक्ति के लिए भी और समाज के लिए भी। यदि बाल्यकाल प्रेम की आयु नहीं है तो फिर जितना विरोध बालविवाह का हो रहा है, कानून बन रहे हैं, उतना ही वेलेन्टाईन डे का भी होना चाहिए। भावनाएं भड़काने की कोई आयु नहीं, लेकिन उन भावनाओं को संयमित करने की आयु निश्चित? यह कैसा सामाजिक विरोधाभास है? हम करें तो आधुनिकता और तुम करो तो अपराध? आज इन्ही प्रश्नों के उत्तर समाज को और नवीन पीढ़ी को तलाशने चाहिएं और उपने मन को टटोलकर देखना चाहिए कि यदि वे सत्य हैं तो दूसरा गलत कैसे हैं?

Saturday, January 31, 2009

सोने का पिंजर....अमेरिका और मैं

पढ़े हिन्‍दयुग्‍म.कॉम के बैठक अध्‍याय के अन्‍तर्गत सोने का पिंजर की तीसरी कडी।

Wednesday, January 21, 2009

जो औरत है, वो बेचारी कैसे?

अर्चना अंतरराष्‍ट्रीय ख्‍याति प्राप्‍त एक सॉफ्‍टवेयर कंपनी में ऊँचे पद पर है। उसका एक पाँव देश में, तो दूसरा विदेश में रहता है। वह एक ऐसी युवती है, जो बेहतरीन खाना बनाती है, जिसने सिलाई-बुनाई जैसे लड़कियों वाले काम भी अत्‍यंत कुशलता से किए हैं और इंजीनियरिंग की उपाधि विश्‍वविद्यालय में अव्‍वल रहकर प्राप्‍त की है।
सही समय पर विवाह किया और एक बेटी की माँ बनने के बाद उसके केरियर ने गति पकड़ी। अब जब भी अर्चना को विदेश जाना पड़ता है, अविनाश बेचारगी से रिश्‍तेदार महिलाओं को ताकता है। कभी खुद अविनाश की माँ, कभी अर्चना की माँ या फिर कोई बुआ, मौसी अर्चना की कही जाने वाली गृहस्‍थी और बेटी को सम्‍भालती हैं, जो कि वास्‍तव में अविनाश की भी है, पर अविनाश न तो गृहस्‍थी संभालने में समर्थ है और न ही बेटी संभालने में। तुर्रा यह कि “बेचारा अविनाश” घर संभाले, बेटी सम्‍भाले या नौकरी करे? जबकि अर्चना जब देश में होती है, तो वह इन तीनों के साथ अविनाश को भी सम्‍भालती है। उसकी सहायता के लिए न उसकी सास रुकती है, न माँ, न बुआ और न ही मौसी। अर्चना के आते ही सब अपने-अपने घर लौट जाती हैं क्‍योंकि अर्चना कोई “बेचारी” थोड़े ही है। वह तो औरत है।
मधुरिमा – 21 जनवरी 2009

Tuesday, January 20, 2009

ओबामा के मायने

अपनी जड़ों से उखड़ने का दर्द शायद इतना गहरा नहीं होता जितनी गहरी वह टीस होती है, जब हमें हर क्षण यह अनुभव कराया जाता हो कि तुम पराए हो। आज से तीन सौ वर्ष पूर्व भारत से लाखों लोग विदेशी धरती को आबाद करने के लिए दुनिया के विभिन्न कोनों में गए थे। उनकी मेहनत से दलदली भूमि में भी गन्ने की फसलें लहलहाने लगीं थीं। आज वे सारे ही देश सम्पन्न देशों की श्रेणी में हैं। लेकिन उन धरती के बाशिन्दों ने उन्हें अपनेपन की उष्मा कभी प्रदान नहीं की। भारत अनेक राज्यों का समूह है, विश्व के सारे ही राष्ट्र अनेक राज्यों के समूह से निर्मित होते हैं। लेकिन भारत में और अन्य राष्ट्रों में शायद एक मूल अन्तर है। भौगोलिक दृष्टि से किसी भी राष्ट्र का राज्यों में विभक्त होना पृथक बात है लेकिन भाषा, खान-पान आदि की पृथकता अलग बात है। ये अन्तर एक होने में अड़चने डालते हैं। जब दुनिया में किसी देश की सीमाएँ नहीं थी तभी से भारतवंशी व्यापार के लिए, घुम्मकड़ता के लिए दुनिया के कोनों में जाते रहे हैं। इतिहास तो यह भी कहता है कि भारतीय मेक्सिको तक गए थे। यही कारण है कि जब दुनिया सीमाओं में बँटी, तब भी भारतीय व्यक्ति अपने कदमों पर लगाम नहीं लगा सके। शायद भारतीय मन असुरक्षा-भाव से ग्रसित नहीं हैं, यही कारण है कि वे अकेले ही दुनिया के किसी भी कोने में बसने के लिए निकल पड़ते हैं। इसीलिए भारतीयों में पराएपन के भाव की पीड़ा मन के अन्दर तक बसी है। वे कभी विदेश में और कभी अपने ही देश में इस पीड़ा को भुगतते हैं। इसलिए ओबामा की जीत उनके लिए महत्वपूर्ण हो जाती है।
हम भारतीय जब सम्पूर्ण सृष्टि को एक कुटुम्ब मानते हैं तब भला एक भारतीय अपने ही देश भारत में प्रांतों की सीमाओं में कैसे सिमटकर रह सकता है? कभी राजस्थान में रेगिस्तान का फैलाव अधिक होने के कारण यहाँ विकास की सम्भावनाएँ नगण्य थीं। तभी से यहाँ का व्यापारी भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में भी रोजगार और व्यापार की सम्भावनाएँ तलाशने के लिए निकल पड़ा। भारत का ऐसा कोई कोना नहीं है जहाँ पर राजस्थान का निवासी नहीं हो। ऐसे ही भारत के आसपास के देशों में भी राजस्थानी बहुलता से गए। राजस्थान की तरह ही सम्पूर्ण देश की जनसंख्या भारत के महानगरों में रोजगार की तलाश में गयी। कभी कलकत्ता उद्योग नगरी थी तो सभी का गंतव्य कलकत्ता था। मुम्बई फिल्मी नगरी थी तो आम भारतीयों के सपने वहीं पूर्ण होते थे। पूर्वांचल में भी व्यापार की प्रचुर सम्भावनाएं थीं तो भारतीय वहाँ भी गए।
अमेरिका में जब यूरोप का साम्राज्य स्थापित हुआ तब उसके नवनिर्माण की बात भी आई। दक्षिण-अफ्रीका से बहुलता से गुलामों के रूप में वहाँ के वासियों को अमेरिका लाया गया। उन लोगों ने रात-दिन एक कर अमेरिका का निर्माण किया। जैसे भारतीयों ने फिजी, मोरिशस आदि देशों का निर्माण किया था। घनघोर जंगल, दलदली भूमि को स्वर्ग बनाने का कार्य यदि किसी ने भी इस दुनिया में किया है तो इन्हीं मेहनतकश मजदूरों ने किया है। लेकिन कभी धर्म के नाम पर, कभी त्वचा के रंग के आधार पर, कभी जाति के आधार पर या फिर कभी बाहरी बताकर जब हम मनुष्य में अन्तर करते हैं तब वेदना का उदय होता है। यही वेदना जब एकीकृत होती है तब उसमें से एक क्रांति का सूत्रपात होता है। कभी यह क्रांति प्रत्यक्ष होती है और कभी इस क्रांति का मूल हमारे मन में होता है। यह घर हमारा भी है, इसी सूत्र को थामे करोड़ों दिलों ने ओबामा को देश का प्रथम नागरिक बना दिया। ओबामा के स्थापित होते ही वे करोड़ों लोग जो बाहरी होने की पीड़ा झेलते आए थे, वे सभी भी इस पीड़ा से मुक्त हो गए। अमेरिका में आकर यूरोप, आस्ट्रेलिया, एशिया, अफ्रीका आदि देशों से बसे करोड़ों बाशिन्दे इस पीड़ा को कहीं न कहीं मन में बसाए थे कि वे बाहरी हैं। उन्हें कभी न कभी इस पीड़ा से गुजरना पड़ा है। गौरी चमड़ी बाहरी रूप से एक दिखायी देती है लेकिन अश्‍वेत और एशिया मूल के लोग एकाकार नहीं हो पाते। इसलिए इन सभी ने एक स्वर में यह माना कि हम सब एक हैं। अब अमेरिका हमारा देश है। ओबामा की जीत के मायने यह भी नहीं है कि सभी ने इस सत्य को स्वीकार किया है लेकिन सत्य प्रतिष्ठापित हो गया है। घनीभूत वेदना पिघलने लगी है। फिर ओबामा सभी का प्रतीक बनकर आए थे।
ओबामा की जीत मानवता की जीत दिखायी देने लगी है। जिन यूरोपियन्स ने करोड़ों मेहनसकश इंसानों को गिरमिटिया बनाया और कभी भी समानता का दर्जा नहीं दिया। जिन यूरोपियन्स ने महिलाओं को समानता प्रदान नहीं की, उन्हीं यूरोपियन्स ने अमेरिका में अपने पापों को धो लिया। अमेरिका में ही यह क्यों सम्भव हुआ? शायद इसलिए कि अमेरिका की धरती पर ही यूरोपियन्स को पराए होने की वेदना का अनुभव हुआ। वे भी इस वेदना के भागीदार बने। आज अमेरिका के मूल निवासी रेड-इण्डियन तो वहाँ केवल बीस प्रतिशत हैं, शेष तो यूरोप, एशिया, आस्ट्रेलिया, अफ्रिका, मेक्सिको आदि के निवासी ही हैं। जब एक भारतीय से यूरोपियन कहता है कि तुम अमेरिकी नहीं हो तब वह भी प्रश्न करता है कि तुम अमेरिकी कैसे हो? तुमने तो यहाँ अत्याचार किए थे, लाखों अमेरिकन्स का कत्लेआम किया था। मैं तो यहाँ के नवनिर्माण का भागीदार हूँ, अतः बताओ कि कौन श्रेष्ठ है? तुम तो लाखों अफ्रिकन्स को गुलाम बनाकर यहाँ लाए थे! तुमने उन्हें इंसान कब समझा? तुमने तो उन्हें 1962 के बाद मताधिकार दिया। इसी वेदना के चलते ओबामा की जीत हुई। उन सभी ने स्वीकार किया कि हम सब अमेरिकी हैं। अमेरिका में अब रंग-भेद के आधार पर राष्ट्रीयता की अनुभूति नहीं होगी। लेकिन वहाँ के मूल निवासियों की वेदना शायद इससे और बढ़ जाए! वे वहाँ अल्पमत में थे और उनकी आवाज कहीं सुनाई नहीं देती थी। दुनिया में यह संदेश गया है कि अमेरिका की धरती सबके लिए है। किसी भी शान्त और सहिष्णु कौम का शायद यही हश्र होता हो!
अमेरिका का एक उज्ज्वल पक्ष और भी है। वहाँ बसे समस्त नागरिकों ने स्वयं को अमेरिकी कहने में गर्व का अनुभव किया। वहाँ तो उन्हें अमेरिकी नहीं कहने से ही वेदना उपजी थी। भारत में ऐसा नहीं है। हम स्वयं को भारतीय होने पर गर्व नहीं करते। हमारी पहचान क्षेत्रीयता के आधार पर विभक्त होती जा रही है। क्यों नहीं हमें भारत कहने में गर्व की अनुभूति होती? क्यों हम इण्डिया कहकर अपनी पहचान छिपाने का प्रयास करते हैं?
ओबामा की जीत हमारी हीनभावना को परे धकेलती है, हम में गौरव की अनुभूति जगाती है। जब ओबामा की जीत विदेशी धरती पर बसे करोड़ों भारतीयों के मन में सपने जगा सकती है तब हम भारतीयों के मन में भी क्षेत्रीयता का दर्द भी मिटा सकती है। ओबामा ने प्रयास किया, वह सफल हुआ। हम भी प्रयास करें, सफल होंगे। सम्पूर्ण भारत हम भारतवासियों का है, यहाँ के कण-कण से अपनत्व की महक आनी चाहिए। हम भारत के किसी भी कोने में जाकर बसें, हमें वहाँ पराएपन की अनुभूति नहीं होनी चाहिए। चाहे वो कश्मीर हो, पूर्वांचल हो या फिर महाराष्ट्र। किसी भी व्यक्ति के मन में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और गुजरात से लेकर पूर्वांचल तक, प्रत्येक प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने का सपना जगना चाहिए। ओबामा की जीत का उत्सव इसलिए नहीं मनाना है कि वह बेहतर राष्ट्रपति सिद्ध होगा अपितु इसलिए मनाना है कि अब कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे को पराया नहीं कह सकेगा। कोई भी इंसान छोटा-बड़ा नहीं बताया जाएगा। किसी भी देश, प्रदेश या संस्था पर कुछ मुट्ठीभर लोगों का कब्जा ही नहीं बताया जाएगा। भारत देश हम सबका है, हमारे पूर्वजों ने इसका निर्माण किया है। अब किसी भी कारण से कहीं भी अवरोध खड़े नहीं किए जाएँगे। मैंने भारत की भूमि पर जन्म लिया है, सम्पूर्ण भारत मेरी जन्मभूमि और कर्मभूमि है। मैं भारत का हूँ और भारत मेरा है। ओबामा के बहाने इसी भावना को पुष्ट करने की आवश्यकता है। हमारे लिए ओबामा के मायने यही हैं।

Wednesday, January 14, 2009

लघु कथा

प्रेम का पाठ

सरस्वती अकेली बैठी है, उसकी आँखों में आँसू हैं। कभी धुंधली होती रोशनी से अपने बुढ़ापे को देख रही है, कभी जंग लगते अपने घुटनों को हाथों से सहला रही है। अपने आप से प्रश्न कर रही है कि ‘मैंने जीवन में प्रेम का पाठ पढ़ाने का प्रयास किया लेकिन आज मैं अकेली क्यूँ हूँ, मेरा सहारा यह छड़ी क्यों बन गयी है?’ वह सूने रास्ते को देख रही थी, जहाँ से शायद उसके बुढ़ापे का सहारा चला आए और उसकी छड़ी को हवा में उछाल दे और बोले, ‘माँ मैं तेरी छड़ी हूँ, इसकी तुझे जरूरत नहीं पड़ेगी’। लेकिन दूर तक कोई नहीं है, लेकिन एक परछाई उसकी ओर बढ़ रही है। परछाई पास आती है, वह एक इंसान में बदल जाती है।
वह इंसान उससे पूछता है कि ‘तुम्हारे द्वारा प्रेम बाँटने का कारण?’
क्योंकि बचपन से ही प्रेम के अभाव की कसक मन में थी।
तुम्हें किसके प्रेम का अभाव था, उसने फिर प्रश्न किया।
सरस्वती ने कहा कि पिता के प्रेम का, पति के प्रेम का।
तुमने अपनी संतान को इसी प्रेम के अभाव का पाठ पढ़ाया?
हाँ पढ़ाया। सरस्वती ने कहा।
तब वे अच्छे पिता बनेंगे और अच्छे पति बनेंगे। वे अच्छे पुत्र कैसे बन सकते हैं? जिसका अभाव तुमने जाना नहीं, उसे तुम कैसे पढ़ा सकती थीं?

Monday, January 12, 2009

पूछती है इन्दर की माँ

पूछती है इन्दर की माँ

मेरे पास का एक गाँव
वहाँ रहने वाली एक माँ
खोए बेटे इन्दर की माँ!
जब भी वहाँ जाती हूँ
मेरे बेटे का सुराग मिला?
पूछती है इन्दर की माँ।

निरूत्तर करते हुए उसके प्रश्नों से
लगता है जैसे मेरे मुँह पर
मौन का ताला पड़ गया है
कैसे कहूँ कि तेरा बेटा भी
सत्य, ज्ञान और लाजवंती की तरह
शहर की भेंट चढ़ गया है।

गाँव से निकलकर पहले
ज्ञान शहर चला गया था
चश्मा चढ़ाए विज्ञान बनकर
गाँव को भूल गया था
ज्ञान की माँ सुरसति भी
उसे गाँव-गाँव ढूँढ रही थी
ज्ञान का तो बदला रूप
मुझे मिल भी गया था
सत्य तो वहाँ से भी ना जाने
कहाँ गुम हो गया था
लाजवंती को खोजने का काम
थाने से भी हट गया था।

यह शहर नहीं
एक भीड़ का है समुन्दर
सत्य, ज्ञान, लाजवंती
और आज तेरा इन्दर
इसमें समाहित हो गए हैं
कहीं खो गए हैं
इन्द्र बनकर भूल गया है
तुझे तेरा इन्दर।

अब गाँव में कहाँ है स्वर्ग
तो कैसे रहे तेरा इन्दर?
शहर की खोखली चकाचौंध में
कहाँ ढूँढू तेरा इन्दर?

आज भी तेरे पास भोला,
गवरी और कलावती रहते हैं
उन्हें ही सहेज ले वे भी
शहर चले गए तो क्या होगा?
क्या पता कभी तेरा भोला
ही सत्य को ले आए
क्या पता कभी गवरी ही
लाजवंती को ढूँढ लाए
क्या पता कभी कलावती ही
ज्ञान को लौटा लाए
जब ये सारे के सारे
गाँव को वापस आ जाएंगे
तो सच कहूँ तेरा इन्दर भी
जरूर लौट आएगा
जरूर लौट आएगा।

Thursday, January 8, 2009

अपने देश में तुम आना

विदेश में बसे भारतीयों के लिए

पीर गंध की जगने पर
हूक उठे तब तुम आना
मन के डगमग होने पर
अपने देश में तुम आना।

सन्नाटा पसरे मन में
दस्तक कोई दे न सके
चींचीं चिड़िया की सुनने
अपने देश में तुम आना।

घर के गलियारे सूने
ना ही गाड़ी की पींपीं
याद जगे कोलाहल की
अपने देश में तुम आना।

शोख रंगों की चाहत हो
फीके रंग से मन धापे
रंगबिरंगी चूंदड़ पाने
अपने देश में तुम आना।

सौंधी मिट्टी, मीठी रोटी
अपना गन्ना, खट्टी इमली
मांगे जीभ तुम्हारी जब
अपने देश में तुम आना।

बेगानापन खल जाए
याद सताए अपनों की
सबकुछ छोड़ छाड़कर तब
अपने देश में तुम आना।

कोई सैनिक दिख जाए
मौल पूछना धरती का
मिट्टी का कर्ज चुकाने तब
अपने देश में तुम आना।

वीराना पसरे घर में
दिख जाए बूढ़ी आँखें
अपनी ठोर ढूंढने तब
अपने देश में तुम आना।

Monday, January 5, 2009

पाती

पाती
परदेस बसे बेटे ने
स्याही की खुशबू से लिपटी
माँ के हाथों की पाती माँगी
अँगुली के पोरों से बाँध कलम को
शब्दों से झरती ममता को
छूने की मंशा चाही।

इंतजार की बेसब्री हो
रोज डाक पर निगाह रहे
दफ्तर से आने पर
एक लिफाफा पड़ा मिले
उद्वेग लिए हाथों से खोलूँ
खत की खुशबू से मन को भर लूँ
घुल-मिलकर बनते शब्दों से
अपने रिश्ते को छूने की इच्छा जागी।

मेरे कमरे की टेबल की
बंद दराज से स्याही लेना
जो बचपन में तुमने पेन दिया था
उस से पाती को रंगना
जहाँ छूट गया मेरा बचपन
उस कमरे में खत को लिखना
यहाँ बनाकर उन यादों का कमरा
छूट गए घर में रहने की चाहत जागी!

Sunday, January 4, 2009

शब्‍द जो मकरंद बने

शब्‍द जो मकरंद बने पुस्‍तक से एक कविता
वसीयत
मेरे अन्दर जितने शब्द बसे हैं
कुछ तो बाँटे पर कुछ शेष रहे हैं
जीवन की इस ढलती संध्या में
मेरी इस पूँजी पर किसका नाम लिखा है?

गठजोड़े में बँधकर
जब घर में नाजुक पैर पड़ेंगे
उस दिन मेरी मुट्ठी में
देने को क्या शेष बचेगा?
उसकी आँखों में सपने दूंगी या
दौलत की कुंजी उसके हाथ धरूँगी?
जब हाथ बढ़ेंगे मेरे पैरों तक
कुछ शब्द लबों पर आएंगे
उनको ही माथे पर अंकित कर दूँ?
या उसके हाथों को पूँजी से भर दूँ?
क्या मेरी इस पूँजी पर उसका नाम लिखा है?

इक दिन ऐसा भी आएगा
सब कुछ देने को मन कर जाएगा
जाती बिटिया की झोली में
क्या-क्या मैं भर दूंगी?
हीरे पन्ने माणक या
इन शब्दों में भीगी दुनिया?
उसकी मुट्ठी में चुपके से रख दूंगी
एक पिटारी प्यारे से शब्दों की
उन शब्दों से शायद मिल जाए
मन को जीतने की कुंजी!
शेष बची पूँजी पर क्या
बिटिया का नाम लिखा है?

मैं क्या देकर जाऊँगी?
यह सोच उभर कर आता है
किसे वसीयत कह दूँ मैं
यह भी मन जान ना पाता है?
कागज पर धन दौलत का जोड़ लिखूँ?
या केवल मन के शब्दों का मौल लिखूँ?
कौन वसीयत कहलाएगी
प्रश्न समझ नहीं आता है?
धन दौलत से तौली जाऊँगी
या मेरे शब्दों को मौल मिलेगा?
शब्दों की पूँजी पर बोलो
किसका नाम लिखा है?

मेरी दौलत को जब कूंता जाएगा
कुछ शब्द निकल कर आएंगे
इन शब्दों का यदि मौल करांेगे
मेरी पूँजी तो इससे ही आंकी जाएगी
मेरी वसीयत में धन दौलत का नाम नहीं
जो भी है बस मेरे अक्षर है
इन पर ना जाने किन-किन का नाम लिखा है?

दौलत तो रीति हो जाएगी
शब्दों से ही संसार बसेगा
मेरे शब्द विरासत में तुम देना
आने वाली हर पीढ़ी को
ये शब्द मधुरता लाएंगे
अपनों का भाव बताएंगे
गंगा में दौलत को अर्पित कर देना
पर इन शब्दों को जाने देना, उड़ने देना
दूर जहाँ तक जाएं ये
पीढ़ी दर पीढ़ी बसने देना
मेरे इन शब्दों में शायद
हर पीढ़ी का नाम लिखा है।

सोने का पिंजर

सोने का पिंजर – अमेरिका और मैं
अजित गुप्‍ता

अपनी बात

आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ। अमेरिका को देखने से अधिक उसे समझने की चाह थी। मेरे घर से, मेरे परिवार से, मेरे आस-पड़ोस से, मेरे इष्ट-मित्रों के बच्चे वहाँ रह रहे थे। उनकी अमेरिका के प्रति ललक और भारत के प्रति दुराव देखकर मन में एक पीड़ा होती थी और एक जिज्ञासा का भाव भी जागृत होता था कि आखिर ऐसा क्या है अमेरिका में? क्यों बच्चे उसे दिखाना चाहते हैं? क्यों वे अपना जीवन भारत के जीवन से श्रेष्ठ मान रहे हैं? ऐसा क्या कारण है जिसके कारण वे सब कुछ भूल गए हैं! उनका माँ के प्रति प्रेम का झरना किसने सुखा दिया? वे कैसे अपना कर्तव्य भूल गए?
ऐसा क्या है अमेरिका में जो प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चों को वहीं पढ़ाना चाहते हैं? एक बार हमारे एक मित्र घर आए, उनका बेटा अमेरिका में पढ़ने जा रहा था, वे कितना खुश थे। मेरा बेटा भी वहीं पढ़ रहा था लेकिन मैं तो कृष्ण की भूमि की हूँ और बिना आसक्ति के कर्म करने में विश्वास रखती हूँ। बेटे ने कहा कि मैं आगे पढ़ना चाहता हूँ तो हमने कहा कि जरूर पढ़ो। जितना पढ़ोंगे उतने ही प्रबुद्ध बनोगे। तब न तो गर्व था कि बेटा अमेरिका जा रहा है और न ही दुख। लेकिन जब मैंने हमारे मित्र की आसक्ति देखी तब मैं पहली बार आश्चर्य चकित रह गयी। इतना मोह अमेरिका से? आखिर किसलिए? लेकिन उनका मोह था, उन्हें गर्व हो रहा था। मेरे ऐसे और भी मित्र हैं जिन्होंने अपने बच्चे की जिद को सर्वोपरि मानते हुए लाखों रूपयों का बैंक से कर्ज लिया और आज वे दुखी हैं। घर नीलाम होने की नौबत आ गयी है।
मैंने ऐसी कई बूढ़ी आँखें भी देखी हैं जो लगातार इंतजार करती रहती हैं, बस इंतजार। मैंने ऐसा बुढ़ापा भी देखा है जो छः माह अमेरिका और छः माह भारत में रहने को मजबूर हैं। वे अपना दर्द किसी को नहीं बताते, केवल एक भ्रम उन सभी ने भारत में निर्मित किया है। लेकिन सत्य सात तालों से भी निकलकर बाहर आ ही जाता है। बातों ही बातों में माँ बता ही देती है कि बहुत ही कष्टकारी जीवन है वहाँ का। कितने ही आश्चर्य निकलकर बाहर आते रहे हैं उनकी बातों से। शुरू-शुरू में तो लगता था कि एकाध का अनुभव है लेकिन जब देखा और जाना तो सबकुछ सत्य नजर आया। अनुभव सभी के एक से थे। सारे ही भारतीय परिवारों की एक ही व्यथा और एक ही अनुभव।
भारतीय भोजन दुनिया में निराला है। हमारे यहाँ की सभ्यता हजारों वर्ष पुरानी है। हमारी अपनी एक संस्कृति है। लेकिन अमेरिका का भोजन भारत से एकदम अलग है। उनकी सभ्यता अभी दो सौ वर्ष पुरानी है। उनके पास संस्कृति के नाम पर प्रकृति है। भारतीय माँ वहाँ जाती है, देखती है कि रोटी नहीं है। बेटा भी उसके हाथ की बनायी रोटी पर टूट पड़ता है और कहता है कि माँ कुछ परांठे बनाकर रख जाओ।
अरे कितने बनाकर रख जाऊँ? माँ आश्चर्य से पूछती है।
तुम जितने बना सको। मेरे पास तो यह फ्रिज है, इसमें दो-तीन महिने भी खाना खराब नहीं होता।
बेचारी माँ जुट जाती है, पराठें बनाने में। दो सो, ढाई सौ, जितने भी बन सकते हैं बनाती है।
ऐसे जीवन की कल्पना भारत में नहीं है। सभी कुछ ताजा और गर्म चाहिए। सुबह का शाम भी हम नहीं खाते।
ऐसे ही ढेर सारे प्रश्न और जिज्ञासाएं मेरे मन में थी। उन सारे ही भ्रमों को मैं तोड़ना चाहती थी। लेकिन मुझे आश्चर्य तब हुआ कि सारे ही मेरे भ्रम सत्य में बदल गए और मेरी लेखनी स्वतः ही लिखती चले गयी। मैंने राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका मधुमती में चार किश्तों में अपने अनुभव लिखे। लोगों के पत्र आने लगे। सभी का आग्रह इतना बलवती था कि मुझे पुस्तक लिखने पर मजबूर कर दिया। मेरे वे अनुभव भारत की अनेक पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुए। मुझे किसी ने भी नहीं कहा कि तुमने यह गलत लिखा है। मैं किसी भी देश की निन्दा नहीं करना चाहती। लेकिन मैं अपने देश का गौरव भी बनाए रखना चाहती हूँ।
मैं उस हीन-भावना से भारतीयों को उबारना चाहती हूँ, जो हीन-भावना उनके बच्चों के कारण उनके मन में घर कर गयी है। अमेरिका निःसंदेह सुंदर और विकसित देश है। वह हमारे लिए प्रेरणा तो बन सकता है लेकिन हमारा घर नहीं। हम भी हमारे देश को ऐसे ही विकसित करें। हम सब मिलकर हमारे भारत को पुनः पुण्य भूमि बनाए। अमेरिका ने स्वतंत्रता की जो परिभाषा दी है हम भी उसे माने और कहें कि हम भी हमारा उत्तरदायित्व पूर्ण करके ही अपनी स्वतंत्रता को प्राप्त करेंगे। हमारी पीढ़ी यह स्वीकार करे कि जब तक हम अपना उत्तरदायित्व अपने देश के प्रति, अपने समाज के प्रति और अपने परिवार के प्रति पूर्ण नहीं कर लेते तब तक हम परतंत्र मानसिकता के साथ ही समझोता करते रहेंगे, अतः हमें अपने सुखों के साथ अपने कर्तव्यों को भी पूर्ण करना है।
मुझे विश्वास है कि बहुत ही शीघ्र भारत विकास के सर्वोच्च मापदण्डों को पूर्ण करेगा। इसकी झलक दिल्ली सहित कई महानगरों में देखने को मिल भी रही है। भारतीय अमेरिका से लौट भी रहे हैं। वे अपने देश का निर्माण करने के लिए आगे भी आ रहे हैं। मुझे विश्वास है कि जिस दिन सभी भारतीय अपने देश को एक सुसंस्कृत देश बना देंगे तब अप्रवासी भारतीय भी पुनः भारत में अपनी भारतीय संस्कृति को स्थापित करने में अपनी भूमिका का निर्वहन करेंगे। क्योंकि आज उनके पास ही हमारी संस्कृति पोषित हो रही है। हम तो इसे नष्ट करने पर उतारू हो गए हैं।
मुझे प्रसन्नता है कि मैं मेरे पाठकों की ईच्छा को मूर्त रूप देने में सफल हुई हूँ। अब आपको निर्णय करना है कि क्या वास्तव में मैं आपके दिलों में अपनी जगह बना पायी? क्या मैं अपने देश के साथ न्याय कर पायी?
यहाँ मैं उन पत्रों का उल्लेख करने लगूँ तो यह काफी लम्बी सूची होगी। मैं उन सभी पाठकों को धन्यवाद देना चाहती हूँ जिन्होंने मुझे प्रेम दिया और आशीर्वाद दिया। मैं उन सभी पत्रिकाओं का भी धन्यवाद देना चाहती हूँ जिन्होंने मेरे निबन्धों को धारावाहिक रूप से प्रकाशित कर मुझे पुस्तक लिखने के लिए प्रेरित किया।
अन्त में मैं धन्यवाद उन नौजवानों को देना चाहती हूँ, जिन्होंने मुझे अमेरिका को और वहाँ बसे भारतीयों की मानसिकता को समझने में सहयोग किया। यह पुस्तक मेरे पौत्र ‘चुन्नू’ के उस असीम प्रेम का उपहार है जिसने मुझे अमेरिका जाने पर मजबूर किया। अतः उसे ही उपहार स्वरूप भेंट।
अजित गुप्ता