Friday, December 2, 2016

कैसी किरकिरी कर दी तूने!

अरे डोकरी के पास खजाना कितना निकला? पड़ोस की काकी मरी और अभी अर्थी उठी भी नहीं थी कि कानाफूसी होने लगी। काकी के जीवन की पूंजी ही यही थी कि मेरे मरने के बाद कितना माल निकलता है, बस इसी शान को बढ़ाने के लिये काकी जीवन भर संचय करती रही। आज घर-घर में ऐसी काकियों के खजाने पर नजर टिक गयी है। एक हम हैं कि दो पैसे भी नहीं है खजाने में! इज्जत को सारा जीवन रोते रहे हम और आज मोदी ने सारी पोलपट्टी खोलकर रख दी, कोई खजाना नहीं! अब काहे की इज्जत! बेगैरत से हो गये हैं हम। अजी तुम्हारी बातें अब रहने ही दो, खीसे में दमड़ी नहीं और देने चले हैं हमको उपदेश। घर वालों ने जैसे लात ही मार दी, कौन दो कोड़ी की औरत की बात पर ध्यान दे! 
हम अपने घर वालों को समझाने में असफल हो गये कि हमारी भी कोई औकात है, लेकिन वे मानने को ही तैयार नहीं। उपेक्षा भरी दृष्टि के पात्र हो गये हैं हम। घर का हर सदस्य अफरा-तफरी में लगा है, कुछ ना कुछ बचाने की जोड़-तोड़ कर रहा है, भागते चोर की लँगोटी ही सही। लेकिन हम निश्चिंतता के साथ शब्दों को तौल रहे हैं, जितना पिटारे से निकालते हैं उतने ही वापस आ जाते हैं, हम स्वयं को अमीर समझ बैठे हैं लेकिन जब घर वाले ही दो कौड़ी का मान बैठे तो आस-पड़ोस, रिश्तेदार तो क्या मान देंगे! हे भगवान! कहीं समधी भी यह ना कह बैठे कि कैसे कंगले घर में बेटी को ब्याह दिया! सारे ही फोन खामोश हो गये हैं, यदि हम कर भी दें तो लोग यह कहकर काट देते हैं कि तुम्हारे पास तो समय ही समय है लेकिन हमें तो बहुत काम है। कई बैंक खातों में कुछ ना कुछ जमा कराना है, अब तुम तो इस लायक भी नहीं कि तुम्हारें बैंक में कुछ डला ही दें।
ऐसे लगने लगा है कि हमारा जनम भी बिगड़ गया है और मरण भी। भला मेरे मरने में किसको रुचि रहेगी! कौन आएगा मिट्टी को ठिकाने लगाने! पोटली को खोलने की बात तो दूर-दूर तक भी सोची नहीं जाएगी, पहले ही पोलपट्टी खुल गयी है। जब धन छिपाकर रखने के दिन थे तब तो एक धैला नहीं मिला अब जब छिपाने की गुंजाइश ही नहीं तो डोकरी ने क्या छिपा लिया होगा? कहीं ऐसा नहीं हो कि चार लोग भी नहीं जुटे हमारी मैय्यत में! हाय मोदी – हाय मोदी कर रही हूँ तभी से, कैसी किरकिरी कर दी तूने! 

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